साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 17
त्वं विश्व॑स्य धन॒दा अ॑सि श्रु॒तो य ईं॒ भव॑न्त्या॒जयः॑। तवा॒यं विश्वः॑ पुरुहूत॒ पार्थि॑वोऽव॒स्युर्नाम॑ भिक्षते ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । विश्व॑स्य । ध॒न॒ऽदाः । अ॒सि॒ । श्रु॒तः । ये । ई॒म् । भव॑न्ति । आ॒जयः॑ । तव॑ । अ॒यम् । विश्वः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । पार्थि॑वः । अ॒व॒स्युः । नाम॑ । भि॒क्ष॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं विश्वस्य धनदा असि श्रुतो य ईं भवन्त्याजयः। तवायं विश्वः पुरुहूत पार्थिवोऽवस्युर्नाम भिक्षते ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। विश्वस्य। धनऽदाः। असि। श्रुतः। ये। ईम्। भवन्ति। आजयः। तव। अयम्। विश्वः। पुरुऽहूत। पार्थिवः। अवस्युः। नाम। भिक्षते ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 17
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
पदार्थ -
पदार्थ = हे दयामय जगदीश ( त्वम् विश्वस्य धनदा असि ) = आप सबको धन देनेवाले हैं ( ये आजय: ) = जो युद्ध ( ईं भवन्ति ) = यहाँ होते हैं उनमें भी ( श्रुतः ) = आपका यश होता है ( पुरुहूत ) = बहुतों से पुकारे गये! ( तव अयम् ) = आपका यह ( पार्थिव: ) = पृथिवी पर रहनेवाला ( अवस्युः ) = अपनी रक्षा चाहनेवाला मनुष्य ( नाम ) = प्रसिद्ध ( भिक्षते ) = आपसे ही सब-कुछ माँगता है।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमात्मन् ! सारे जगत् में जितने मनुष्य हैं ये सब, आपसे ही अपनी रक्षा चाहते हैं और आपसे ही अनेक प्रकार का धन ऐश्वर्य माँगते हैं। आप उनके कर्मानुसार उनकी रक्षा करते और धन भी देते हैं। जिस धन के लिए संसार में अनेक युद्ध हुए और होते रहते हैं, उस धन के प्रदाता भी आप ही हैं, बड़े-बड़े राजा महाराजा भी आपके आगे सब भिखारी हैं। आप अपने प्यारे भक्तों से प्रसन्न होकर सब धनादि पदार्थ देकर इस लोक में सुखी करते, और परलोक में भी मुक्ति सुख देकर सदा सुखी बनाते हैं ।
इस भाष्य को एडिट करें