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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    त्वं विश्व॑स्य धन॒दा अ॑सि श्रु॒तो य ईं॒ भव॑न्त्या॒जयः॑। तवा॒यं विश्वः॑ पुरुहूत॒ पार्थि॑वोऽव॒स्युर्नाम॑ भिक्षते ॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । विश्व॑स्य । ध॒न॒ऽदाः । अ॒सि॒ । श्रु॒तः । ये । ई॒म् । भव॑न्ति । आ॒जयः॑ । तव॑ । अ॒यम् । विश्वः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । पार्थि॑वः । अ॒व॒स्युः । नाम॑ । भि॒क्ष॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं विश्वस्य धनदा असि श्रुतो य ईं भवन्त्याजयः। तवायं विश्वः पुरुहूत पार्थिवोऽवस्युर्नाम भिक्षते ॥१७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। विश्वस्य। धनऽदाः। असि। श्रुतः। ये। ईम्। भवन्ति। आजयः। तव। अयम्। विश्वः। पुरुऽहूत। पार्थिवः। अवस्युः। नाम। भिक्षते ॥१७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 17
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे पुरुहूत ! यः श्रुतः पार्थिवस्त्वं विश्वस्य धनदा असि यस्य तवायं विश्वोऽवस्युर्जनो नाम त्वद्रक्षणं भिक्षते य ईमाजयो भवन्ति तत्र सर्वे त्वत्सहायमिच्छन्ति ताँस्त्वं सततं रक्ष ॥१७॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (विश्वस्य) समग्रस्य राष्ट्रस्य (धनदाः) यो धनं ददाति सः (असि) (श्रुतः) प्रसिद्धकीर्तिः (ये) (ईम्) सर्वतः (भवन्ति) (आजयः) सङ्ग्रामाः (तव) (अयम्) (विश्वः) सर्वो जनः (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित स्वीकृत (पार्थिवः) पृथिव्यां विदितः (अवस्युः) आत्मनोऽवो रक्षामिच्छुः (नाम) प्रसिद्धं रक्षणम् (भिक्षते) याचते ॥१७॥

    भावार्थः

    यो राजा सङ्ग्रामे विजयकर्तृभ्यः पुष्कलं धनं ददाति तस्य पराजयः कदापि न भवति यः प्रजाजनो रक्षणमिच्छेत्तस्य रक्षां यः सततं करोति स एव पुण्यकीर्तिर्भवति ॥१७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसा को प्राप्त स्वीकार किये हुए राजन् ! जो (श्रुतः) प्रसिद्ध कीर्तियुक्त (पार्थिवः) पृथिवी पर विदित (त्वम्) आप (विश्वस्य) समग्र राज्य के (धनदाः) धन देनेवाले (असि) हैं जिन (तव) आपका (अयम्) यह (विश्वः) सर्व (अवस्युः) अपने को रक्षा चाहनेवाला जन (नाम) प्रसिद्ध तुम से रक्षा को (भिक्षते) माँगता है (ये) जो (ईम्) सब ओर से (आजयः) संग्राम (भवन्ति) होते हैं, उनमें सब तुम्हारे सहाय को चाहते हैं, उनकी आप निरन्तर रक्षा करें ॥१७॥

    भावार्थ

    जो राजा संग्राम में विजय करनेवालों को बहुत धन देता है, उसका पराजय कभी नहीं होता है, जो प्रजाजन रक्षा चाहें उसकी रक्षा जो निरन्तर करता है, वही पुण्यकीर्ति होता है ॥१७॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = हे दयामय जगदीश ( त्वम् विश्वस्य धनदा असि ) = आप सबको धन देनेवाले हैं ( ये आजय: ) = जो युद्ध ( ईं भवन्ति ) = यहाँ होते हैं उनमें भी ( श्रुतः ) = आपका यश होता है ( पुरुहूत ) = बहुतों से पुकारे गये! ( तव अयम् ) = आपका यह ( पार्थिव: ) = पृथिवी पर रहनेवाला ( अवस्युः ) = अपनी रक्षा चाहनेवाला मनुष्य ( नाम ) = प्रसिद्ध ( भिक्षते ) = आपसे ही सब-कुछ माँगता है।

     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परमात्मन् ! सारे जगत् में जितने मनुष्य हैं ये सब, आपसे ही अपनी रक्षा चाहते हैं और आपसे ही अनेक प्रकार का धन ऐश्वर्य माँगते हैं। आप उनके कर्मानुसार उनकी रक्षा करते और धन भी देते हैं। जिस धन के लिए संसार में अनेक युद्ध हुए और होते रहते हैं, उस धन के प्रदाता भी आप ही हैं, बड़े-बड़े राजा महाराजा भी आपके आगे सब भिखारी हैं। आप अपने प्यारे भक्तों से प्रसन्न होकर सब धनादि पदार्थ देकर इस लोक में सुखी करते, और परलोक में भी मुक्ति सुख देकर सदा सुखी बनाते हैं ।

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    विषय

    धन का स्वामी होकर मनुष्य क्या करे ?

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( ईम् ) सब ओर ( आजयः भवन्ति ) संग्राम होते हैं उनमें सर्वत्र ( त्वं) तू ही (विश्वस्य धनदाः श्रुतः असि ) सबका धन देने हारा प्रसिद्ध है । हे ( पुरु-हूत ) बहुतों से प्रशंसित ! ( अयं ) यह (विश्वः) समस्त (पार्थिव:) पृथिवी में रहने वाला राजवर्ग और प्रजावर्ग ( अवस्युः ) रक्षा चाहता हुआ ( तव नाम ) तेरे ही दुष्टों को नमाने वाले शासन और तेरे ही अधीन आजीविका, वृत्ति ( भिक्षते ) चाहता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दुष्टों का अभिभव

    पदार्थ

    पदार्थ - (ये) = जो (ईम्) = सब ओर (आजयः भवन्ति) = संग्राम होते हैं उनमें (त्वं) = तू (विश्वस्य धनदाः श्रुतः असि) = सबका धनदाता प्रसिद्ध है। हे (पुरुहूत) = प्रशंसित ! (अयं) = यह (विश्वः) = समस्त (पार्थिवः) = पृथिवीवासी राज-प्रजावर्ग (अवस्युः) = रक्षा चाहता हुआ (तव) = नाम दुष्टों को नमानेवाले तेरे अधीन रहना (भिक्षते) = चाहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- राज्य की प्रजा उस पराक्रमी, तेजस्वी राजा को चाहती है, जो राष्ट्र में दुष्टों को दण्डित कर उनके ऐश्वर्य को छिन्न-भिन्न करके राजनियमों में चलने के लिए बाध्य करता है तथा दुष्टता के अहम् को झुका देता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा युद्धात विजय प्राप्त करणाऱ्यांना पुष्कळ धन देतो. त्याचा कधी पराजय होत नाही. जो प्रजेचे निरंतर रक्षण करतो तोच चांगली कीर्ती मिळवितो. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You are the wealth giver of the world, universally heard and acclaimed, universally invoked in all battles of the world that there are, since the whole humanity on earth in search of protection looks up to you and prays for sustenance and progress.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বং বিশ্বস্য ধনদা অসি শ্রুতো য ঈ ভবন্ত্যাজয়ঃ।

    তবায়ং বিশ্বঃ পুরুহুত পার্থিবোঽবস্যুর্নাম ভিক্ষতে।।৪৮।।

    (ঋগ্বেদ ৭।৩২।১৭)

    পদার্থঃ হে দয়াময় জগদীশ! (ত্বম্ বিশ্বস্য ধনদা অসি) তুমি সকলকে ধনের প্রদাতা। (য আজয়ঃ) বীরদের যুদ্ধ যেখানে (ঈ ভবন্তি) হয়ে থাকে, সেখানেও (শ্রুতঃ) তোমারই শক্তির যশ কীর্তিত হয়ে থাকে। (পার্থিবঃ) পৃথিবীর (বিশ্বঃ) সকল মনুষ্য (অবস্যুঃ) যারা তোমার কৃপা অভিলাষী, (পুরুহুত) বহু প্রকারে স্তুত (তব অয়ম্ নাম) তোমার এই প্রসিদ্ধ নাম দ্বারা (ভিক্ষতে) তোমার নিকটেই সকল কিছু চেয়ে থাকে।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! সমগ্র জগতে যত মনুষ্য রয়েছে, তারা সকলেই তোমার নিকট নিজ রক্ষা প্রার্থনা করে এবং তোমার নিকটই অনেক ধন ঐশ্বর্য চেয়ে থাকে। তুমি তাদের কর্মানুসারে তাদের রক্ষা এবং ধন ও প্রদান করো। যে ধনের জন্য সংসারে অনেক যুদ্ধ হয়েছে বা হচ্ছে, সেই ধনের প্রদাতাও তুমি, বড় রাজা মহারাজাও তোমার সম্মুখে ভিখারি। তুমি তোমার প্রিয় ভক্তের প্রতি প্রসন্ন হয়ে সকল ধনাদি পদার্থ দিয়ে ইহজন্মে সুখী করো এবং পরজন্মেও মুক্তি সুখ প্রদান করে সদা সুখী করো।।৪৮।।

     

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