ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 12
उदिन्न्व॑स्य रिच्य॒तेंऽशो॒ धनं॒ न जि॒ग्युषः॑। य इन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्न द॑भन्ति॒ तं रिपो॒ दक्षं॑ दधाति सो॒मिनि॑ ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठउत् । इत् । नु । अ॒स्य॒ । रि॒च्य॒ते । अंशः॑ । धन॑म् । न । जि॒ग्युषः॑ । यः । इन्द्रः॑ । हरि॑ऽवान् । न । द॒म्भ॒न्ति॒ । तम् । रिपः॑ । दक्ष॑म् । द॒धा॒ति॒ । सो॒मिनि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदिन्न्वस्य रिच्यतेंऽशो धनं न जिग्युषः। य इन्द्रो हरिवान्न दभन्ति तं रिपो दक्षं दधाति सोमिनि ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठउत्। इत्। नु। अस्य। रिच्यते। अंशः। धनम्। न। जिग्युषः। यः। इन्द्रः। हरिऽवान्। न। दभन्ति। तम्। रिपः। दक्षम्। दधाति। सोमिनि ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कि कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
यो हरिवानिन्द्रः सोमिनि दक्षं दधाति तं रिपो न दभन्ति यस्याऽस्य जिग्युषस्तमिदंश उद्रिच्यते तमंशो धनं नेव नु दधाति ॥१२॥
पदार्थः
(उत्) (इत्) (नु) (अस्य) (रिच्यते) अधिको भवति (अंशः) भागः (धनम्) (न) इव (जिग्युषः) जयशीलस्य (यः) (इन्द्रः) समर्थो राजा (हरिवान्) बहुप्रशस्तमनुष्ययुक्तः (न) निषेधे (दभन्ति) हिंसन्ति (तम्) (रिपः) शत्रवः (दक्षम्) बलम् (दधाति) (सोमिनि) ऐश्वर्यवति ॥१२॥
भावार्थः
यो राजा धनिष्वैश्वर्यं दरिद्रेषु च वर्धयति तं हिंसितुं कोऽपि न शक्नोति यस्याऽधिकः पुरुषार्थो भवति तमेव धनप्रतिष्ठे प्राप्नुतः ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (हरिवान्) बहुत प्रशंसित मनुष्य युक्त (इन्द्रः) समर्थ राजा (सोमिनि) ऐश्वर्यवान् में (दक्षम्) बल (दधाति) धारण करता है (तम्) उसको (रिपः) शत्रुजन (न) नहीं (दभन्ति) नष्ट करते हैं जिस (अस्य) इस (जिग्युषः) जयशील के (इत्) उस के प्रति (अंशः) भाग (उत् रिच्यते) अधिक होता है उसको वह भाग (धनम्) धन के (न) समान (नु) शीघ्र धारण करता है ॥१२॥
भावार्थ
जो राजा धनियों में जो ऐश्वर्य है, उसे दरिद्रियों में भी बढ़ाता है, उसको कोई नष्ट नहीं कर सकता है, जिसका अधिक पुरुषार्थ होता है, उसी को धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ॥१२॥
विषय
बड़ा अधिकारी वह जो अपने बल को प्रभु के निमित्त व्यय करे ।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष (इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, सूर्य के समान तेजस्वी ( हरिवान्) मनुष्यों का स्वामी और अश्व सैन्यों का स्वामी होकर ( सोमिनि ) बल, वीर्य, और ऐश्वर्यवान् पुरुष में ( दक्षं दधाति ) अपना ज्ञान और कर्म बल धारण करा सकता है । ( जिग्युषः न ) विजेता के समान ( अस्य इत् नु ) उसका ( अंशः धनं न ) भाग वा धन ( उद्रिच्यते ) सबसे अधिक होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान-कर्म उन्नत हो
पदार्थ
पदार्थ - (यः) = जो पुरुष (इन्द्रः) = सूर्य-तुल्य तेजस्वी, (हरिवान्) = अश्व - सैन्यों का स्वामी होकर (सोमिनि) = ऐश्वर्यवान् पुरुष में (दक्षं दधाति) = बल धारण करता है (तम्) = उसको (रिपोः) = शत्रु का भय नहीं रहता है, और वह (जिग्युषः न) = विजेता के तुल्य (अस्य इत् नु) = उसका (अंशः धनं न) = भाग वा धन उद्रिच्यते सर्वाधिक होता है।
भावार्थ
भावार्थ- शत्रु के नाश में जैसे पराक्रमी वीर योद्धा को उसके शौर्य हेतु पदक से सम्मानित किया जाता है। उसी प्रकार से राष्ट्र में ज्ञानपूर्वक राष्ट्र की उन्नति हेतु उन्नत कर्म करनेवाले नागरिकों को शासन पुरुस्कृत कर प्रोत्साहित करे।
मराठी (1)
भावार्थ
धनिकांमध्ये जसे ऐश्वर्य असते तसे ऐश्वर्य जो राजा दरिद्री लोकांमध्येही वाढवितो, ते कोणी नष्ट करू शकत नाही. जो अधिक पुरुषार्थ करतो त्यालाच धन व प्रतिष्ठा प्राप्त होते. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
High rises the victor’s share of excellence as his wealth of life increases when Indra, guardian protector of the brave, vests his love of victory and soma-sublimity with the will and expertise of yajnic living. And then no enemies can ever defeat and destroy him.
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