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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    शिक्षे॑य॒मिन्म॑हय॒ते दि॒वेदि॑वे रा॒य आ कु॑हचि॒द्विदे॑। न॒हि त्वद॒न्यन्म॑घवन्न॒ आप्यं॒ वस्यो॒ अस्ति॑ पि॒ता च॒न ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शिक्षे॑यम् । इत् । म॒ह॒ऽय॒ते । दि॒वेऽदि॑वे । रा॒यः । आ । कु॒ह॒चि॒त्ऽविदे॑ । नहि । त्वत् । अ॒न्यत् । म॒घ॒ऽव॒न् । नः॒ । आप्य॑म् । वस्यः॑ । अस्ति॑ । पि॒ता । च॒न ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिक्षेयमिन्महयते दिवेदिवे राय आ कुहचिद्विदे। नहि त्वदन्यन्मघवन्न आप्यं वस्यो अस्ति पिता चन ॥१९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिक्षेयम्। इत्। महऽयते। दिवेऽदिवे। रायः। आ। कुहचित्ऽविदे। नहि। त्वत्। अन्यत्। मघऽवन्। नः। आप्यम्। वस्यः। अस्ति। पिता। चन ॥१९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 19
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रजाजनैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन्निन्द्र ! योऽहं दिवेदिव आ कुहचिद्विदे महयते राये शिक्षेयं त्वदन्यद्रक्षकं न जानीयां यस्त्वं पिता चनासि स त्वमिन्नो वस्य आप्यमन्यन्नह्यस्ति ॥१९॥

    पदार्थः

    (शिक्षेयम्) सुशिक्षां कुर्याम् (इत्) एव (महयते) महते (दिवेदिवे) (राये) धनाय (आ) समन्तात् (कुहचिद्विदे) यः कुह क्वचिदपि विन्दति तस्मै (नहि) (त्वत्) (अन्यत्) (मघवन्) पूजितधनयुक्त (नः) अस्माकम् (आप्यम्) आप्तुं योग्यम् (वस्यः) वशीयः (अस्ति) (पिता) (चन) अपि ॥१९॥

    भावार्थः

    त एव भृत्या उत्तमाः सन्ति ये राजानं स्वस्वामिनं विहायाऽन्यं न याचन्ते नादत्तं गृह्णन्ति प्रतिदिनं पुरुषार्थेन प्रजारक्षणं धनवृद्धिं च चिकीर्षन्ति ॥१९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रजाजनों को क्या चाहने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) पूजित धनयुक्त परमैश्वर्य्यवान् ! जो मैं (दिवेदिवे) प्रकाश प्रकाश के लिये (आ, कुहचिद्विदे) जो कहीं भी प्राप्त होता उस (महयते) महान् (राये) धन के लिये (शिक्षेयम्) अच्छी शिक्षा करूँ (त्वत्) तुम से (अन्यत्) और रक्षक को न जानूँ जो आप (पिता) पिता रक्षा करनेवाले (चन) भी हैं इस कारण सो आप (इत्) ही (नः) हमारे (वस्यः) अत्यन्त वश (आप्यम्) प्राप्त होने के योग्य हैं और (नहि) नहीं (अस्ति) है ॥१९॥

    भावार्थ

    वे ही भृत्य उत्तम हैं, जो राजा वा स्वामी को छोड़ के दूसरे को =से नहीं जांचते =माँगते न विना दिये लेते, प्रतिदिन पुरुषार्थ से प्रजा की रक्षा कर और धनवृद्धि करना चाहते हैं ॥१९॥

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    विषय

    पूज्यों को धन दे । सर्वोपरि पालक प्रभु ।

    भावार्थ

    मैं ऐश्वर्यवान् होकर ( दिवे दिवे) प्रति दिन (कुह चिद्विदे) कहीं भी विद्यमान वा कुछ भी प्राप्त करने योग्य ( महयते) बड़े, पूज्य पुरुष के आदरार्थ (रायः ) नाना धन ( शिक्षेयम् इत् ) दिया ही करूं । हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वत् अन्यत् ) तुझसे दूसरा ( नः ) हमारा ( वसीय: ) श्रेष्ठ (आप्यं ) बन्धु और ( पिता चन ) पालक भी ( नहि अस्ति ) नहीं है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पूज्य पुरुषों का आदर

    पदार्थ

    पदार्थ- मैं ऐश्वर्यवान् होकर (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (कुह चिद्विदे) = कहीं भी विद्यमान, (महयते) = पूज्य पुरुष के आदरार्थ (रायः) = नाना धन (शिक्षेयम् इत्) = दिया ही करूँ। हे (मघवन्) = ऐश्वर्यवन् ! (त्वत् अन्यत्) = तुझसे दूसरा (नः) = हमारा (वस्यः) = श्रेष्ठ (आप्यं) = बन्धु और (पिता चन) = पालक भी (नहि अस्ति) = नहीं है।

    भावार्थ

    भावार्थ-जिस राज्य में पूज्य पुरुषों का अनादर तथा अपूज्यों का सम्मान होता है वहाँ अकाल, मृत्यु तथा भय व्याप्त हो जाता है। अतः राजा एवं प्रजा दोनों को चाहिए कि वे पूज्य पुरुषों का सत्कार करें तथा उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर राष्ट्रोन्नति में सहयोग प्राप्त करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजा व आपला स्वामी यांना सोडून दुसऱ्याकडे जात नाहीत, दिल्याशिवाय घेत नाहीत. प्रत्येक दिवशी पुरुषार्थाने प्रजेचे रक्षण व धनवृद्धीची इच्छा करतात तेच उत्तम सेवक असतात. ॥ १९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Every day I would wish to give wealth and support for the person who seeks to rise for enlightenment wherever he be. O lord of wealth, power and honour, there is none other than you worthy of love and attainment as our own, as father indeed.

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