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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    नकिः॑ सु॒दासो॒ रथं॒ पर्या॑स॒ न री॑रमत्। इन्द्रो॒ यस्या॑वि॒ता यस्य॑ म॒रुतो॒ गम॒त्स गोम॑ति व्र॒जे ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकिः॑ । सु॒ऽदासः॑ । रथ॑म् । परि॑ । आ॒स॒ । न । री॒र॒म॒त् । इन्द्रः॑ । यस्य॑ । अ॒वि॒ता । यस्य॑ । म॒रुतः॑ । गम॑त् । सः । गोऽम॑ति । व्र॒जे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकिः सुदासो रथं पर्यास न रीरमत्। इन्द्रो यस्याविता यस्य मरुतो गमत्स गोमति व्रजे ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकिः। सुऽदासः। रथम्। परि। आस। न। रीरमत्। इन्द्रः। यस्य। अविता। यस्य। मरुतः। गमत्। सः। गोऽमति। व्रजे ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कस्य केन किं स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    यस्येन्द्रोऽविता गमद्यस्य मरुतो रक्षकाः सन्ति गोमति व्रजे गमत् यस्येन्द्रो रक्षिता नास्ति स सुदासो रथं नकिः पर्यास स न रीरमत् ॥१०॥

    पदार्थः

    (नकिः) (सुदासः) श्रेष्ठा दासाः सेवका दानानि वा यस्य सः (रथम्) (परि) सर्वतः (आस) अस्यति (न) निषेधे (रीरमत्) रमयति (इन्द्रः) दुष्टानां विदारकः (यस्य) (अविता) रक्षकः (यस्य) (मरुतः) प्राणा इव मनुष्याः (गमत्) गच्छति (सः) (गोमति) गावो बहवो धेनवो विद्यन्ते यस्मिँस्तस्मिन् (व्रजे) व्रजन्ति यस्मिँस्तस्मिन् स्थाने ॥१०॥

    भावार्थः

    यदि राजा प्रजाया रक्षको न स्यात्तर्हि कस्यापि सुखं न भवेत् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किसका किससे क्या हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यस्य) जिसका (इन्द्रः) दुष्टों को विदीर्ण करनेवाला (अविता) रक्षक (गमत्) जाता है वा (यस्य) जिसके (मरुतः) प्राण के मनुष्य रक्षा करनेवाले हैं जो (गोमति) जिसमें बहुत सी गौयें विद्यमान और (व्रजे) जिसमें जाते हैं उस स्थान में जाता है, जिसका दुष्टों का विदीर्ण करनेवाला रक्षक नहीं वह (सुदासः) श्रेष्ठ सेवक वा दोनोंवाला जन (रथम्) रथ को (नकिः) नहीं (परि, आस) सब ओर से अलग करता और (सः) वह (न) नहीं (रीरमत्) दूसरों को रमाता है ॥१०॥

    भावार्थ

    यदि राजा प्रजा का रक्षक न हो तो किसी को सुख न हो ॥१०॥

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    विषय

    प्रभुरक्षित का अपार बल ।

    भावार्थ

    ( यस्य ) जिसका ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता, तत्वदर्शी वीर, विद्वान् और प्रभु ( अविता ) रक्षक है यस्य (मरुतः) जिसके रक्षक और शिक्षक प्राणवत् प्रिय और वायुवद् बलवान् विद्वान् जन हैं ( सः ) वह विद्वान् पुरुष ( गोमति व्रजे ) वाणियों से युक्त प्राप्तव्य ज्ञान मार्ग में ( गमत् ) जाता और ( स गोमति व्रजे ) वह नाना भूमियों और गवादि पशुओं से सम्पन्न प्राप्तव्य पद को ( गमत् ) प्राप्त करता है । ( सु-दासः ) उत्तम दान देने वाले के ( रथं ) रथ को (नकि: परि आस ) कोई पलट नहीं सकता और ( न रीरमत् ) वह अन्यों को सुख नहीं दे सकता, न स्वयं सुख पाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    राष्ट्ररक्षक तत्त्वदर्शी, शत्रुहन्ता हो

    पदार्थ

    पदार्थ- (यस्य) = जिसका (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान्, वीर, प्रभु (अविता) = रक्षक है, (यस्य मरुतः) = जिसके रक्षक, शिक्षक, बलवान् विद्वान् हैं (सः) = वह पुरुष (गोमति व्रजे) = वाणी-युक्त प्राप्तव्य ज्ञान मार्ग में नाना भूमियों और गवादि से सम्पन्न पद को (गमत्) = पाता है। (सु-दासः) = उत्तम दाता के (रथं) = रथ को (नकिः परि आस) = कोई पलट नहीं सकता और (न रीरमत्) = न अन्य उसे दुःख दे सकता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्वर भक्त, तत्त्वद्रष्टा पुरुष जैसे जीवन में काम, क्रोधादि शत्रुओं-विकारों नष्ट कर देता है। उसी प्रकार उत्तम विद्वान् अध्यापकों से प्रेरित नीतिज्ञ राष्ट्र नायक को जीतकर को भी शत्रु का विनाश कर राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर राजा प्रजेचा रक्षक नसेल तर कुणीही सुख प्राप्त करू शकणार नाही. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    No one can counter turn the chariot of the generous nor stop it for rest or entertainment. The rider whose patron is Indra, destroyer of obstructions, and Maruts, vibrant defenders of life, stops not until he reaches the goal where abides the treasure of his love and ambition.

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