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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    श्रव॒च्छ्रुत्क॑र्ण ईयते॒ वसू॑नां॒ नू चि॑न्नो मर्धिष॒द्गिरः॑। स॒द्यश्चि॒द्यः स॒हस्रा॑णि श॒ता दद॒न्नकि॒र्दित्स॑न्त॒मा मि॑नत् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रव॑त् । श्रुत्ऽक॑र्णः । ई॒य॒ते॒ । वसू॑नाम् । नु । चि॒त् । नः॒ । म॒र्धि॒ष॒त् । गिरः॑ । स॒द्यः । चि॒त् । यः । स॒हस्रा॑णि । स॒ता । दद॑त् । नकिः॑ । दित्स॑न्तम् । आ । मि॒न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रवच्छ्रुत्कर्ण ईयते वसूनां नू चिन्नो मर्धिषद्गिरः। सद्यश्चिद्यः सहस्राणि शता ददन्नकिर्दित्सन्तमा मिनत् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रवत्। श्रुत्ऽकर्णः। ईयते। वसूनाम्। नु। चित्। नः। मर्धिषत्। गिरः। सद्यः। चित्। यः। सहस्राणि। सता। ददत्। नकिः। दित्सन्तम्। आ। मिनत् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    यः श्रुत्कर्णः सद्यः श्रवन्नो वसूनां गिरश्चिन्नु मर्धिषत्सहस्राणि शतां ददन्नीयते दित्सन्तं नकिरामिनत् स चित्सर्वदा सुखी भवति ॥५॥

    पदार्थः

    (श्रवत्) शृणुयात् (श्रुत्कर्णः) श्रुतौ कर्णे यस्य सः (ईयते) गच्छति (वसूनाम्) धनानाम् (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (नः) अस्माकम् (मर्धिषत्) अभिकाङ्क्षेत् (गिरः) सुशिक्षिता वाचः (सद्यः) (चित्) अपि (यः) (सहस्राणि) (शता) असंख्यानि (ददत्) ददाति (नकिः) निषेधे (दित्सन्तम्) दातुमिच्छन्तम् (आ) (मिनत्) हिंस्यात् ॥५॥

    भावार्थः

    ये दीर्घेण ब्रह्मचर्येण सर्वा विद्याः शृण्वन्ति विद्यासुशिक्षिता वाच इच्छन्त्यन्येभ्योऽतुलं विज्ञानं ददति ते दुःखं नाप्नुवन्ति ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (श्रुत्कर्णः) श्रुति में कान रखनेवाला (सद्यः) शीघ्र (श्रवत्) सुने (नः) हमारे (वसूनाम्) धनों के सम्बन्ध में (गिरः) अच्छी शिक्षा की भरी हुई वाणियों को (चित्) भी (नु) शीघ्र (मर्धिषत्) चाहे (सहस्राणि) हजारों (शता) सैकड़ों पदार्थों को (ददत्) देता और (ईयते) पहुँचाता है (दित्सन्तम्) देना चाहते हुए को (नकिः) नहीं (आ, मिनत्) विनाशे (चित्) वही सर्वदा सुखी होता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से सब विद्याओं को सुनते, अच्छी शिक्षायुक्त वाणियों को चाहते और औरों को अतुल विज्ञान देते हैं, वे दुःख नहीं पाते हैं ॥५॥

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    विषय

    वह राजा की प्रजा के कष्टों को सुने ।

    भावार्थ

    ( वसूनां ) बसे हुए प्रजाजनों की ( गिरः ) वाणियों को जो राजा (श्रुत्कर्ण:) श्रवण करने वाले सावधान कानों से ( श्रवत् ) सुने, वही ( ईयते ) आदरपूर्वक प्रार्थना किया जाता है । वह ( नः गिरः चित् नु ) हमारी वाणियों को ( मर्धिषत् ) चाहे । (सद्यः चित् ) अति शीघ्र ( यः ) जो ( शता सहस्राणि ) सैकड़ों और सहस्रों को ( ददत् )प्रदान करे । ( दित्सन्तम् ) दान देना चाहने वाले को ( न किः आ मिनत् ) कोई भी पीड़ित या दुखी न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शासक प्रजा के कष्टों को सुने

    पदार्थ

    पदार्थ- (वसूनां) = बसे प्रजाजनों की (गिरः) = वाणियों को जो राजा (श्रुतकर्ण:) = सुननेवाले सावधान कानों से (श्रवत्) = सुने, वही (ईयते) = प्रार्थना किया जाता है। वह (नः गिरः चित् नु) = हमारी वाणियों को (मर्धिषत्) = चाहे, (सद्यः चित्) = अति शीघ्र (यः) = जो (शता सहस्त्राणि) = सैकड़ों और सहस्रों को (ददत्) = दे। (दित्सन्तम्) = दान देना चाहनेवाले को (न किः आ मिनत्) = कोई भी पीड़ित न करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र में शासक वर्ग को संवेदनशील तथा प्रजा का हितकारी होना चाहिए। जब भी प्रजा जन शासक के पास अपने कष्टों के निवारणार्थ आवें, उनके कष्टों को सुनकर तुरन्त उसका समाधान करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे दीर्घ ब्रह्मचर्य पालन करून सर्व विद्येचे श्रवण करतात. चांगल्या सुसंस्कृत वाणीची कामना करतात व इतरांना खूप विज्ञान देतात ते दुःखी होत नाहीत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The lord has a keen ear to listen to the supplicant. He listens, therefore he is approached for the gift of wealth, honour and excellence. May the lord never ignore our prayers, may he, instead, soften and sanctify our supplications. Indeed, instant giver of a hundred thousand gifts of good fortune as he is, no one can withhold him when he extends his hand of generosity.

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