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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यदि॑न्द्र॒ याव॑त॒स्त्वमे॒ताव॑द॒हमीशी॑य। स्तो॒तार॒मिद्दि॑धिषेय रदावसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ रासीय ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । याव॑तः । त्वम् । ए॒ताव॑त् । अ॒हम् । ईशी॑य । स्तो॒तार॑म् । इत् । दि॒धि॒षे॒य॒ । र॒द॒व॒सो॒ इति॑ रदऽवसो । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । रा॒सी॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र यावतस्त्वमेतावदहमीशीय। स्तोतारमिद्दिधिषेय रदावसो न पापत्वाय रासीय ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। इन्द्र। यावतः। त्वम्। एतावत्। अहम्। ईशीय। स्तोतारम्। इत्। दिधिषेय। रदवसो इति रदऽवसो। न। पापऽत्वाय। रासीय ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 18
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजपुरुषैः किमेष्टव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे रदावस इन्द्र ! यद्यस्त्वं यावत ईशिषे एतावदहमपीशीय स्तोतारमिद्दिधिषेय पापत्वाय नाहं रासीय ॥१८॥

    पदार्थः

    (यत्) यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदातः (यावतः) (त्वम्) (एतावत्) (अहम्) (ईशीय) ईश्वरः समर्थो भवेयम् (स्तोतारम्) (इत्) एव (दिधिषेय) धरेयम् (रदावसो) यो रदेषु विलेखनेषु वसति तत्सम्बुद्धौ (न) निषेधे (पापत्वाय) पापस्य भावाय (रासीय) दद्याम् ॥१८॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यदि भवानस्मान्सततं रक्षेत् तर्हि वयं भवतो राष्ट्रस्य च रक्षां विधाय पापाचारं त्यक्त्वाऽन्यानप्यधर्माचारात् पृथग्रक्ष्य सततमानन्देम ॥१८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर राजपुरुषों को क्या चाहना योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (रदावसो) करोदनों में वसनेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! (यत्) जो (त्वम्) आप (यावतः) जितने के ईश्वर हों (एतावत्) इतने का मैं (ईशीय) ईश्वर हूँ समर्थ होऊँ (स्तोतारम्) प्रशंसा करनेवाले को (इत्) ही (दिधिषेय) धारण करूँ और (पापत्वाय) पाप होने के लिए पदार्थ (न)(अहम्) मैं (रासीय) देऊँ ॥१८॥

    भावार्थ

    हे राजा ! यदि आप हम लोगों की निरन्तर रक्षा करें तो हम आपके राज्य को रक्षा कर पापाचरण त्याग औरों को भी अधर्माचरण से अलग रख कर निरन्तर आनन्द करें ॥१८॥

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    विषय

    पापी को दान न दूं

    शब्दार्थ

    (इन्द्र) हे अनन्त ऐश्वर्यशालिन् ! हे परमेश्वर ! (यत्) जिस और (यावत:) जितने ऐश्वर्य का (त्वम्) तू स्वामी है (अहम् ) मैं भी (एतावद्) उतने ही ऐश्वर्य का (ईशीय) स्वामी बनूँ । (रदावसो) हे धनदातः ! हे समस्त पदार्थों को देनेहारे ! मैं (स्तोतारम् इत् ) भगवद्-भक्तों को, सदाचारियों को ही (दधिषे) दान दूं (पापत्वाय) पापियों, दुराचारियों और पाप-कर्मों के लिए (न रंसिषम्) कभी न दूं ।

    भावार्थ

    वैदिक धर्म में धन को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता । वैदिक धर्मी तो प्रतिदिन प्रार्थना करता है -"वयं स्याम पतयो रयीणाम्" ( ऋ० १० । १२१ । १० ) - हम धनैश्वर्यो के स्वामी बनें । और धन भी कितना ? मन्त्र में कहा है - प्रभो ! जिस और जितने धनैश्वर्य के आप स्वामी हैं, मेरे पास भी उतना ही धन होना चाहिये । प्रभु हमारी माता है, वह हमारा पिता है, बन्धु सखा है। एक के पास तो धन का भण्डार हो, अन्न के ढेर लगे हों और दूसरा भूखा मर रहा हो, यह तो ठीक प्रतीत नहीं होता, अतः भगवन् ! जितना धन आपके पास है मुझे भी उतना ही धन दे दो । मन्त्र में दो बातें और कही गई हैं- १. भगवन् ! मुझे अपने लिए धन की आवश्यकता नहीं है, मैं तो इस धन को आपके भक्तों में बाँट दूंगा । २. मैं आपके दिये धन का दुरुपयोग नहीं करूंगा। मैं पापी और पाप-कर्मों के लिए आपके धन का दान नहीं करूंगा ।

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    विषय

    विद्वानों का पालन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यत् ) जिस प्रकार और ( याचतः ) जितने भी धनैश्वर्य का ( त्वम् ) तू स्वामी है ( एतावन् ) उतना ही ( अहम् ) मैं भी ( ईशीय ) ऐश्वर्य का स्वामी हो जाऊं । हे ( रदावसो ) शत्रुकर्षण करने वाले बसी प्रजाजनों के स्वामिन् ! वा धनों के देने वाले ! मैं उस धन से (स्तोतारम् इत् ) स्तुति करने वाले को ही ( दिधिषेय ) पालन करूं । मैं अपना धन (पापत्वाय ) पाप कर्म की वृद्धि के लिये ( न रासीय ) कभी न दूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    धन धर्म में व्यय हो

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! (यत्) = जैसे और (यावतः) = जितने भी धन का (त्वम्) = तू स्वामी है (एतावत्) = उतना ही (अहम्) = मैं भी (ईशीय) = स्वामी हो जाऊँ । हे (रदावसो) = शत्रु-कर्षक बसी प्रजा के स्वामिन् ! मैं उस से (स्तोतारम् इत्) = स्तुतिकर्ता को ही (दिधिषेय) = पालूँ। मैं अपना धन (पापत्वाय) = पाप-वृद्धि हेतु (न रासीय) = न दूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र के कोष का धन सदैव धर्म, सेवा एवं राष्ट्रहित के कार्यों में ही व्यय होवे। किसी भी पाप कर्म में राष्ट्र का धन न लगे। राजा राज्य में शराब, तम्बाकू, मांसाहार आदि कार्यों को प्रोत्साहित करने में राजकोष का व्यय न करे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जर तू आमचे निरंतर रक्षण केलेस तर आम्ही तुझ्या राज्याचे रक्षण करू. पापाचरणाचा त्याग करून इतरांनाही अधर्माचरणापासून वेगळे करून निरंतर आनंद भोगू. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord ruler of the world, giver of wealth and excellence, as much as you grant, so much I wish I should control and rule. I would hold it only to support the devotees of divinity and would not spend it away for those who indulge in sin and evil.

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