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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    मा स्रे॑धत सोमिनो॒ दक्ष॑ता म॒हे कृ॑णु॒ध्वं रा॒य आ॒तुजे॑। त॒रणि॒रिज्ज॑यति॒ क्षेति॒ पुष्य॑ति॒ न दे॒वासः॑ कव॒त्नवे॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । स्रे॒ध॒त॒ । सो॒मि॒नः॒ । दक्ष॑त । म॒हे । कृ॒णु॒ध्वम् । रा॒ये । आ॒ऽतुजे॑ । त॒रणिः॑ । इत् । ज॒य॒ति॒ । क्षेति॑ । पुष्य॑ति । न । दे॒वासः॑ । क॒व॒त्नवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा स्रेधत सोमिनो दक्षता महे कृणुध्वं राय आतुजे। तरणिरिज्जयति क्षेति पुष्यति न देवासः कवत्नवे ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। स्रेधत। सोमिनः। दक्षत। महे। कृणुध्वम्। राये। आऽतुजे। तरणिः। इत्। जयति। क्षेति। पुष्यति। न। देवासः। कवत्नवे ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किंवद्वर्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा देवासः कवत्नवे न प्रवर्तन्ते तथा सोमिन आतुजे महे राय मा स्रेधत दक्षत सुकर्माणि कृणुध्वं यस्तरणिरिदिव जयति क्षेति पुष्यति ते दक्षत ॥९॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (स्रेधत) हिंसत (सोमिनः) ओषध्यादियुक्तस्यैश्वर्यवतो वा (दक्षत) बलं प्राप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (महे) महते (कृणुध्वम्) (राये) धनाय (आतुजे) बलकारकाय (तरणिः) पुरुषार्थी (इत्) इव (जयति) (क्षेति) निवसति (पुष्यति) (न) निषेधे (देवासः) विद्वांसः (कवत्नवे) कुत्सितकर्मव्यापनाय ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । येऽन्यायेन कञ्चिन्न हिंसन्ति धर्मात्मनां वृद्धिं सततं कुर्वन्ति ते विद्वांसः सदा विजयन्ते धर्म्ये निवसन्ति पुष्टाश्च जायन्ते ॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्य किसके तुल्य वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (देवासः) विद्वान् जन (कवत्नवे) कुत्सित कर्म में व्याप्ति के लिये (न) नहीं प्रवृत्त होते हैं, वैसे (सोमिनः) ओषधी आदि युक्त वा ऐश्वर्यवान् के (आतुजे) करनेवाले (महे) महान् (राये) धन के लिये (मा) मत (स्रेधत) विनाशो (दक्षत) बल पाओ सुकर्म (कृणुध्वम्) करो जो (तरणिः) पुरुषार्थी जन (इत्) ही (जयति) जीतता (क्षेति) जो निरन्तर वसता वा (पुष्यति) जो पुष्ट होता, वे सब बल पावें ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो अन्याय से किसी की हिंसा नहीं करते और धर्मात्माओं की वृद्धि करते हैं, वे विद्वान् जन सर्वदा जीतते, धर्म में निवास करते और पुष्ट होते हैं ॥९॥

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    विषय

    हिंसा मत करो

    शब्दार्थ

    हे ऐश्वर्यशाली लोगो ! (मा स्रेधत) हिंसा मत करो (महे) वृद्धि के लिए (दक्षत) सदा यत्न करते रहो। ( आतुजे राये) सर्वतो महान् अध्यात्म ऐश्वर्य के लिए (कृणुध्वम्) कठोर साधना करो । (तरणिः इत्) नौका के समान संकट को पार करनेवाला पुरुषार्थी मनुष्य ही (जयति) विजय प्राप्त करता है (क्षेति) बसता और बसाता है (पुष्यति) पुष्ट और समृद्ध होता है, फलता और फूलता है । (देवासः) दिव्यगुण (कवत्नवे) दुराचार के लिए (न) नहीं होते ।

    भावार्थ

    मन्त्र में जीवन को उन्नति-पथ की ओर ले जानेवाली कई सुन्दर शिक्षाएँ हैं - १. हे शान्ति चाहनेवाले लोगो ! परस्पर हिंसा और मार-काट मत करो । एक-दूसरे का घात-पात कर अपने देश को नष्ट मत करो । २. एक दूसरे की वृद्धि के लिए, भलाई और कल्याण के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए । ३. ‘ब्रह्मतेजो बलं बलम्’ (वा० रा ० बा० ५६ । ३३) ब्रह्मतेज ही वास्तविक बल है । उस आध्यात्मिक बल और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए कठोर साधना करो । ४. जो दूसरों को तारनेवाले हैं, परोपकार करनेवाले हैं, उजड़ों को बसानेवाले हैं, वे ही संसार में विजय प्राप्त करते हैं, वे ही समृद्ध होते हैं, फलते और फूलते हैं । ५. दिव्य-गुणों को प्राप्त कर सदाचार में ही प्रवृत्त रहना चाहिए, दुराचारी और लम्पट नहीं बनना चाहिए ।

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    विषय

    वीर्यवान् पुरुषों को उपदेश । वे परस्पर का नाश न करके महान् ऐश्वर्य के लिये यत्नशील हों ।

    भावार्थ

    हे ( सोमिनः ) 'सोम' धनैश्वर्य, वीर्य अन्नादि के पालक जनो ! आप लोग ( मा स्रेधत) विनाश और परस्पर का नाश मत करो। ( महे राये ) बड़े भारी धनैश्वर्य को प्राप्त करने के लिये और (आ-तुजे), सब प्रकार के बल प्राप्त करने कराने वाले के लिये सर्वतः पालक ऐश्वर्य के लिये ( दक्षत ) सदा यत्न करते रहो । ( तरणिः इत् ) सब संकटों को पार करने वाला और शीघ्रकारी पुरुषार्थी पुरुष ही ( जयति ) विजय प्राप्त करता है और ( पुष्यति ) पुष्ट, समृद्ध हो जाता है। ( देवासः ) विद्वान् पुरुष और उत्तम गुण भी ( कवत्नवे ) कुत्सित आचार वाले पुरुष के हित के लिये ( न ) नहीं होते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पुरुषार्थी की विजय

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (सोमिन:) = अन्नादि के पालक जनो! आप लोग (मा स्त्रेधत) = परस्पर नाश मत करो। (महे राये) = बड़ी धनैश्वर्य प्राप्ति और (आ-तुजे) = सब प्रकार के बल प्राप्त करने और ऐश्वर्य के लिये (दक्षत) = सदा यत्न करो। (तरणिः इत्) = संकटों को पार करनेवाला पुरुष ही (जयति क्षेति) = विजय करता और (पुष्यति) = समृद्ध होता है (देवासः) - विद्वान् पुरुष (कवत्नये) = कुत्सित पुरुष के लिये न नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ-संसार समरांगण है। इसमें पुरुषार्थी पुरुष ही विजय पाता है। इसी प्रकार पुरुषार्थीपराक्रमी पुरुष ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर राष्ट्र को समृद्ध एवं उन्नत ऐश्वर्ययुक्त बना सकता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अन्यायाने कुणाची हत्या करीत नाहीत व धर्मात्म्याची वृद्धी करतात ते विद्वान सदैव जिंकतात व धर्माचे पालन करून पुष्ट होतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Relent not, O makers of soma. Hurt not the lovers of soma. Perfect the nectar for life’s grandeur, strengthen the makers for the beauty and glory of life. Work on and on for the growth of life and for the strong defence of life’s vitality. The one that runs wins the race, lives in peace as well as provides for peace and security, grows and contributes to growth. The brilliant and generous are not for the lazy, the miser and the selfish.

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