ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 27
मा नो॒ अज्ञा॑ता वृ॒जना॑ दुरा॒ध्यो॒३॒॑ माशि॑वासो॒ अव॑ क्रमुः। त्वया॑ व॒यं प्र॒वतः॒ शश्व॑तीर॒पोऽति॑ शूर तरामसि ॥२७॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । अज्ञा॑ताः । वृ॒जनाः॑ । दुः॒ऽआ॒ध्यः॑ । मा । अशि॑वासः । अव॑ । क्र॒मुः॒ । त्वया॑ । व॒यम् । प्र॒ऽवतः॑ शश्व॑तीः । अ॒पः । अति॑ । शू॒र॒ । त॒रा॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो अज्ञाता वृजना दुराध्यो३ माशिवासो अव क्रमुः। त्वया वयं प्रवतः शश्वतीरपोऽति शूर तरामसि ॥२७॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। अज्ञाताः। वृजनाः। दुःऽआध्यः। मा। अशिवासः। अव। क्रमुः। त्वया। वयम्। प्रऽवतः शश्वतीः। अपः। अति। शूर। तरामसि ॥२७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 27
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्याः समुद्रादिकं केन तरेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे शूर ! नाऽज्ञाता वृजना दुराध्यो नोऽस्मान्माव क्रमुरशिवासोऽस्मान्माऽव क्रमुर्यतस्त्वया सह वयं प्रवतो देशाञ्शश्वतीरपोऽति तरामसि ॥२७॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्मान् (अज्ञाताः) (वृजनाः) वृजन्ति येषु यैस्सह वा ते (दुराध्यः) दुःखेनाऽऽध्यातुं योग्यः (मा) (अशिवासः) असुखप्रदाः (अव) (क्रमुः) अवक्राम्यन्तु (त्वया) [त्वया] सह (वयम्) (प्रवतः) निम्नान् (शश्वतीः) अनादिभूताः (अपः) जलानि (अति) (शूर) निर्भय (तरामसि) उल्लङ्घेमहि ॥२७॥
भावार्थः
राजा राजजनाः सेनाः सभाध्यक्षाश्चेदृशीर्नावो रचयेयुर्याभिस्समुद्रान् सुखेन सर्वे तरेयुस्तत्र समुद्रेषु नौचालकानां मार्गविज्ञानं यथार्थं स्यादिति ॥२७॥ अत्रेन्द्रमेधाविधनविद्याकामिरक्षकराजेश्वरजीवधनसंचयेश्वरनौयायिगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वात्रिंशत्तमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य समुद्रादिकों को किससे तरें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शूर) निर्भय ! (नः) हम लोगों को (अज्ञाताः) छिपे हुये (वृजनाः) जिनमें जाते हैं वा जिनसे जाते हैं वे (दुराध्यः) और दुःख से चिंतने योग्य (नः) हम लोगों को (मा) मत (अव, क्रमुः) उल्लङ्घन करें (अशिवासः) दुःख देनेवाले हम लोगों को (मा) मत उल्लङ्घन करें जिससे (त्वया) तुम्हारे साथ (वयम्) हम लोग (प्रवतः) नीचे देशों को तथा (शश्वतीः) अनादिभूत (अपः) जलों को (अति, तरामसि) अतीव उतरें ॥२७॥
भावार्थ
राजा और राजजन, सेना और सभाध्यक्ष ऐसी नावें रचें, जिनसे समुद्रों को सुख से सब तरें। उन समुद्रों में नौकाओं के चलानेवालों को मार्गविज्ञान यथार्थ हो ॥२७॥ इस सूक्त में इन्द्र, मेधावी, धन, विद्या की कामना करनेवाले, रक्षक, राजा, ईश्वर, जीव, धनसंचय फिर ईश्वर और नौकाओं के जानेवालों के गुण और कर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बत्तीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
पापमोचन की प्रार्थना ।
भावार्थ
(नः) हमें (अज्ञाताः) अज्ञात (वृजना:) वर्जन करने योग्य, हिंसक, ( दुराध्यः ) दुःख से ध्यान करने योग्य, दुःखदायी चिन्ताजनक और (अशिवासः) अकल्याणकारी बुरे लोग ( मा अव क्रमुः ) मत रौंदें । हे ( शूर ) दुष्टों के नाशक ( वयम् ) हम लोग ( त्वया ) तेरी सहायता से ( प्रवतः ) अति विनीत होकर ( शश्वती अपः ) अनादि काल से प्राप्त वा बहुत से कर्मबन्धनों को नदियों के समान ( अति तरामसि ) पार कर जावें । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
सुखी बसे संसार सब
पदार्थ
पदार्थ - (न:) = हमें (अज्ञाता:) = अज्ञात (वृजनाः) = वर्जने योग्य, (दुराध्यः) = दुःख से ध्याने योग्य, (अशिवास:) = दुष्ट लोग (मा अव क्रमुः) = मत रौंदें । हे (शूर) = दुष्ट-नाशक (वयम्) = हम (त्वया) = तेरी सहायता से (प्रवतः) = विनीत होकर (शश्वती अपः) = अनादि काल से प्राप्त कर्म बन्धनों को नदीतुल्य (अति तरामसि) = पार करें।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन में ईश्वर आराधना से मनुष्य समस्त कष्टों, बाधाओं तथा दुःखों को पार कर सकता है। उपासक सदैव यही प्रार्थना करता है कि- सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे कोय। संसार में मैं भी तो आता हूँ। इसलिए हे प्रभो! सब के साथ मेरा भी बेड़ा पार हो जाएगाअगले सूक्त के ऋषि वसिष्ठ पुत्र तथा वसिष्ठ और देवता भी वशिष्ठ ही है।
मराठी (1)
भावार्थ
राजा, राजजन, सेना व सभाध्यक्ष यांनी अशा नावा तयार कराव्यात. ज्यामुळे समुद्रातून सर्वांनी सुखाने तरून जावे. समुद्रात नौका चालविणाऱ्यांना मार्गाचे यथार्थ ज्ञान असावे. ॥ २७ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord almighty beyond fear, let not the ignorant and unknown, crooked intriguers, evil designers, and malevolent opponents in ambush attack us on way to you. May we, guided, directed and protected by you, cross the universal streams of life rushing down the slopes of time.
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