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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    मन्त्र॒मख॑र्वं॒ सुधि॑तं सु॒पेश॑सं॒ दधा॑त य॒ज्ञिये॒ष्वा। पू॒र्वीश्च॒न प्रसि॑तयस्तरन्ति॒ तं य इन्द्रे॒ कर्म॑णा॒ भुव॑त् ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन्त्र॑म् । अख॑र्वम् । सुऽधि॑तम् । सु॒ऽपेश॑सम् । दधा॑त । य॒ज्ञिये॑षु । आ । पू॒र्वीः । च॒न । प्रऽसि॑तयः । त॒र॒न्ति॒ । तम् । यः । इन्द्रे॑ । कर्म॑णा । भुव॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्त्रमखर्वं सुधितं सुपेशसं दधात यज्ञियेष्वा। पूर्वीश्चन प्रसितयस्तरन्ति तं य इन्द्रे कर्मणा भुवत् ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्त्रम्। अखर्वम्। सुऽधितम्। सुऽपेशसम्। दधात। यज्ञियेषु। आ। पूर्वीः। चन। प्रऽसितयः। तरन्ति। तम्। यः। इन्द्रे। कर्मणा। भुवत् ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 13
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रजाः कीदृशं राजानमनुकूला भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    ये यज्ञियेष्वखर्वं सुधितं सुपेशसं मन्त्रं दधात यः कर्मणेन्द्रे भुवत्तं पूर्वीः प्रसितयश्चना तरन्ति ॥१३॥

    पदार्थः

    (मन्त्रम्) विचारम् (अखर्वम्) अनल्पं पूर्णम् (सुधितम्) सुष्ठुहितम् (सुपेशसम्) सुरूपम् (दधात) (यज्ञियेषु) राजपालनादिसङ्गतेषु व्यवहारेषु (आ) (पूर्वीः) प्राचीनाः (चन) अपि (प्रसितयः) प्रकृष्टानि प्रेमबन्धनानि (तरन्ति) प्राप्नुवन्ति (तम्) (यः) (इन्द्रे) राजनि (सति) (कर्मणा) सत्क्रियया (भुवत्) भवेत् ॥१३॥

    भावार्थः

    येषां राज्ञां गूढो विचारः सर्वहितकरणं श्रेष्ठप्रयत्नश्च भवति ते सत्क्रियया सर्वाः प्रजाः प्रेमास्पदेन रञ्जयितुं शक्नुवन्ति ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रजा कैसे राजा के अनुकूल होती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (यज्ञियेषु) राजपालनादि कामों से सङ्ग रखते हुए व्यवहारों में (अखर्वम्) पूर्ण (सुधितम्) सुन्दरता से स्थापित (सुपेशसम्) सुरूपम् (मन्त्रम्) विचार को (दधात) धारण करें। (यः) जो (कर्मणा) उत्तम क्रिया से (इन्द्रे) राजा के निमित्त (भुवत्) प्रसिद्ध हो (तम्) उसको (पूर्वीः) प्राचीन (प्रसितयः) प्रकृष्ट प्रेमबन्धन (चन) भी (आ, तरन्ति) प्राप्त होते हैं ॥१३॥

    भावार्थ

    जिन राजाओं का गूढ़ विचार सर्वहित करना और श्रेष्ठ यत्न होता है, वे अच्छी क्रिया से सब प्रजाजनों को प्रेमास्पद से प्रसन्न कर सकते हैं ॥१३॥

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    विषय

    बड़ा उत्तम मन्त्र, रक्षा का उपदेश प्रभुभक्त को ही धर्मबन्धन तराते हैं ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! ( यज्ञियेषु ) पूजा सत्कार करने योग्य जनों और ( यज्ञियेषु ) यज्ञ, दान, सत्संग प्रजापालन आदि व्यवहारों में ( अखर्वं ) बहुत अधिक ( सु-धितम् ) उत्तम रीति से रक्षित, विहित, हितकारी, ( सुपेशसं ) उत्तम रूप से युक्त, भव्य, ( मन्त्रं ) मन्त्र को ( आ दधात ) सब ओर से धारण करो । ( पूर्वी: चन ) पूर्व के भी ( प्र-सितयः ) उत्तम प्रेमबन्धन ( तं तरन्ति ) उसको प्राप्त होते हैं (यः) जो पुरुष ( कर्मणा ) अपने सत्कर्म से ( इन्द्रे भुवत् ) परम ऐश्वर्यवान् राजा या प्रभु परमेश्वर में दत्तचित्त रहता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सत्कर्मी राजा का ऐश्वर्य

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वान् पुरुषो! (यज्ञियेषु) = सत्कार योग्य जनों और दान आदि व्यवहारों में (अखर्व) = बहुत अधिक (सु-धितम्) = उत्तम रीति से रक्षित, (सुपेशसं) = उत्तम रूप से युक्त, (मन्त्रं) = मन्त्र को (आ दधात) = धारण करो। (पूर्वी: चन) = पूर्व के भी (प्र-सितयः) = उत्तम प्रेम-बन्धन (तं तरन्ति) = उसको प्राप्त होते हैं (यः) = जो पुरुष (कर्मणा) = सत्कर्म से (इन्द्रे भुवत्) = परमेश्वर में दत्तचित्त रहता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को अपने राज्य में ईश्वर द्वारा प्रेरित सत्कर्मों को करना चाहिए। जिससे प्रजा में उसका अपार-सत्कार बढ़े तथा प्रजा ऐसे सत्कर्मी राजा की प्रशंसक, अनुयायी होकर राष्ट्र की एकता व अखण्डता में सहायक बने। इससे राजा ऐश्वर्यशाली तथा राष्ट्र समृद्ध बनेगा।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राजांचे गूढ विचार सर्वहितकारी व प्रयत्न श्रेष्ठ असतो. ते चांगले कर्म करून सर्व प्रजेला प्रेमाने प्रसन्न करू शकतात. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Offer perfect, well structured and graceful mantric thoughts, adorations and actions to the divinities in yajnic programmes of creativity and development. Then even the oldest bounds of will and passion take the yajaka across the seas who dedicates his actions to the service of Indra.

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