ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
रा॒यस्का॑मो॒ वज्र॑हस्तं सु॒दक्षि॑णं पु॒त्रो न पि॒तरं॑ हुवे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठरा॒यःऽका॑मः । वज्र॑ऽहस्तम् । सु॒ऽदक्षि॑णम् । पु॒त्रः । न । पि॒तर॑म् । हु॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रायस्कामो वज्रहस्तं सुदक्षिणं पुत्रो न पितरं हुवे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठरायःऽकामः। वज्रऽहस्तम्। सुऽदक्षिणम्। पुत्रः। न। पितरम्। हुवे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः केन कः किंवदुपासनीय इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा रायस्कामोऽहं पुत्रः पितरं न वज्रहस्तं सदक्षिणं राजानं हुवे तथैनं यूयमप्याह्वयत ॥३॥
पदार्थः
(रायस्कामः) यो धनानि कामयते सः (वज्रहस्तम्) शस्त्रास्त्रपाणिम् (सुदक्षिणम्) शोभना दक्षिणा यस्य तम् (पुत्रः) (न) इव (पितरम्) जनकम् (हुवे) ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या यथा पुत्राः पितरमुपासते तथा राजानं ये परिचरन्ति ते सकलैश्वर्यमश्नुवते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर किसको कौन किसके तुल्य उपासना करने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (रायस्कामः) धनों की कामना करनेवाला मैं (पुत्रः) पुत्र (पितरम्) पिता को जैसे (न) वैसे (वज्रहस्तम्) शस्त्र और अस्त्रों के पार जाने और (सुदक्षिणम्) शुभ दक्षिणा रखनेवाला राजा को (हुवे) बुलाता हूँ, वैसे तुम भी बुलाओ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य जैसे पुत्र पिता की उपासना करते हैं, वैसे राजा की जो सेवा करते हैं, वे समस्त ऐश्वर्य पाते हैं ॥३॥
विषय
धनार्थी का पुत्रवत् पिता तुल्य प्रभु का स्मरण ।
भावार्थ
मैं ( रायस्कामः ) ऐश्ववर्य की कामना करता हुआ, ( पितरं पुत्रः न ) पिता को पुत्र के समान ( सु-दक्षिणं ) उत्तम दानशील, उत्तम क्रिया-सामर्थ्यवान्, ( वज्रहस्तं ) बलवीर्य सम्पन्न, बल से शत्रु को मारने वाले राजा को अपना ( पितरं ) पालक ( हुवे ) स्वीकार करता हूं ।
टिप्पणी
प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः ॥ रघु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
राजा हमारा पालक हो
पदार्थ
पदार्थ- मैं (रायस्काम:) = ऐश्वर्य का इच्छुक, (पितरं पुत्रः न) = पिता को पुत्र के समान (सुदक्षिणंउत्तम) = दानशील, उत्तम क्रिया-सामर्थ्यवान्, (वज्रहस्तं) = बल- सम्पन्न राजा को अपना (पितरं) = पालक (हुवे) = स्वीकारता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ- जैसे पुत्र अपने पिता को अपना पालक मानता है, उसी प्रकार से प्रजा भी शत्रुओं से रक्षा करनेवाले राजा को अपना पालक स्वीकार करें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पुत्र पित्याची सेवा करतात तसे जे राजाची सेवा करतात ते संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Dedicated to the honour and prosperity of the human nation, and keen to realise the excellence of life for myself too, I invoke generous Indra, lord ruler of the world, wielder of the thunderbolt of defence and protection in hand as keeper of the law and justice of the order of governance. I invoke him like a child yearning for the father for his generosity.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal