ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 21
न दु॑ष्टु॒ती मर्त्यो॑ विन्दते॒ वसु॒ न स्रेध॑न्तं र॒यिर्न॑शत्। सु॒शक्ति॒रिन्म॑घव॒न् तुभ्यं॒ माव॑ते दे॒ष्णं यत्पार्ये॑ दि॒वि ॥२१॥
स्वर सहित पद पाठन । दुः॒ऽस्तु॒ती । मर्त्यः॑ । वि॒न्द॒ते॒ । वसु॑ । न । स्रेध॑न्तम् । र॒यिः । न॒श॒त् । सु॒ऽशक्तिः॑ । इत् । म॒घ॒ऽव॒न् । तुभ्य॑म् । माऽव॑ते । दे॒ष्णम् । यत् । पार्ये॑ । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
न दुष्टुती मर्त्यो विन्दते वसु न स्रेधन्तं रयिर्नशत्। सुशक्तिरिन्मघवन् तुभ्यं मावते देष्णं यत्पार्ये दिवि ॥२१॥
स्वर रहित पद पाठन। दुःऽस्तुती। मर्त्यः। विन्दते। वसु। न। स्रेधन्तम्। रयिः। नशत्। सुऽशक्तिः। इत्। मघऽवन्। तुभ्यम्। माऽवते। देष्णम्। यत्। पार्ये। दिवि ॥२१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 21
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्या धनप्राप्तये किं किं कर्म कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मघवन् ! यथा मर्त्यो दुष्टुती वसु न विन्दते स्रेधन्तं नरं रयिः सुशक्तिरिन्न नशदेवं मावते तुभ्यं पार्ये दिवि यद्देष्णं न नशत् तदन्यमपि न प्राप्नोति ॥२१॥
पदार्थः
(न) निषेधे (दुष्टुती) दुष्टया प्रशंसया (मर्त्यः) मनुष्यः (विन्दते) प्राप्नोति (वसु) धनम् (न) निषेधे (स्रेधन्तम्) हिंसन्तम् (रयिः) श्रीः (नशत्) प्राप्नोति (सुशक्तिः) शोभना चासौ शक्तिश्च सुशक्तिः (इत्) एव (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त (तुभ्यम्) (मावते) मत्सदृशाय (देष्णम्) दातुं योग्यम् (यत्) (पार्ये) पालयितुं पूरयितुं योग्ये (दिवि) कामे ॥२१॥
भावार्थः
येऽधर्माचारा दुष्टा हिंस्रा मनुष्याः सन्ति तान् धनं राज्यं श्रीरुत्तमं सामर्थ्यं च न प्राप्नोति तस्मात् सर्वैर्न्यायाचारेणैव धनमन्वेषणीयम् ॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य धन की प्राप्ति के लिये क्या-क्या कर्म करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मघवन्) परमपूजित धनयुक्त ! जैसे (मर्त्यः) मनुष्य (दुष्टुती) दुष्ट प्रशंसा से (वसु) धन को (न) न (विन्दते) प्राप्त होता है (स्रेधन्तम्) और हिंसा करनेवाले मनुष्य को (रयिः) लक्ष्मी और (सुशक्तिः) सुन्दर शक्ति (इत्) ही (न) नहीं (नशत्) प्राप्त होती है इस प्रकार (मावते) मेरे समान (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (पार्ये) पालना वा पूर्णता करने के योग्य (दिवि) काम में (यत्) जो (देष्णम्) देने योग्य को न प्राप्त होता वह और को भी नहीं प्राप्त होता है ॥२१॥
भावार्थ
जो अधर्माचरण से युक्त दुष्ट, हिंसक मनुष्य हैं उनको धन, राज्य, और उत्तम सामर्थ्यं नहीं प्राप्त होता है, इससे सबको न्याय के आचरण से ही धन खोजना चाहिये ॥२१॥
विषय
दुष्ट को न धन और न शक्ति मिले। वे दोनों भक्त को मिलें !
भावार्थ
( मर्त्यः) मनुष्य ( दुःस्तुती) दुष्ट पुरुष की स्तुति, सेवा, बुरी स्तुति अर्थात् निन्दा से ( वसु न विन्दते ) धन को प्राप्त नहीं करता । ( स्रेधन्तं ) हिंसक पुरुष को ( रयिः ) ऐश्वर्य ( न नशत् ) कभी नहीं मिलता । और उसको ( सुशक्तिः इत् न नशत् ) उत्तम प्रशंसनीय शक्ति, सामर्थ्य भी प्राप्त नहीं होता । हे ( मघवन् ) उत्तम धन के स्वामिन् ! ( यत् ) जो ( पार्ये दिवि ) पालने और पूर्ण करने योग्य कामनायोग्य व्यवहार में ( मावते ) मेरे जैसे याचक को ( देष्णं ) देने योग्य धन देने की ( सुशक्ति इत् तुभ्यम् ) उत्तम शक्ति भी तेरी ही है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
निन्दा से उत्तम धन प्राप्त नहीं होता
पदार्थ
पदार्थ - (मर्त्यः) = मनुष्य (दुःस्तुती) = दुष्ट की स्तुति से (वसु न विन्दते) = धन नहीं पाता। (स्त्रेधन्तं) = हिंसक जन को (रयि:) = ऐश्वर्य (न नशत्) = नहीं मिलता और उसको (सुशक्तिः इत् न नशत्) = उत्तम शक्ति भी नहीं मिलती। हे (मघवन्) = धन-स्वामिन् ! (यत्) = जो (पार्थे दिवि) = पालने योग्य व्यवहार में (मावते) = मेरे जैसे याचक को (देष्णं) = देने योग्य धन देने की (सुशक्ति इत् तुभ्यम्) = उत्तम शक्ति भी तेरी ही है।
भावार्थ
भावार्थ- राज्य में निन्दक तथा हिंसक लोग न रहें। ऐसे निन्दितों को प्रोत्साहन न मिलेऐसा राजनियम होवे। निन्दा व हिंसा से कभी भी उत्तम धन प्राप्त नहीं हो सकता।
मराठी (1)
भावार्थ
जी अधर्माचरणी, दुष्ट, हिंसक माणसे असतात त्यांना धन, राज्य, श्री व उत्तम सामर्थ्य प्राप्त होत नाही. त्यामुळे सर्वांनी न्यायाचरणाने धनाचा शोध घेतला पाहिजे. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
By protest and violence the mortal does not win the wealth of life. Nor does wealth oblige the inactive and malevolent. O lord of honour and excellence, right competence dedicated to Divinity is your gift for a person like me which is good on the day of the cross over.
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