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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    इ॒मे हि ते॑ ब्रह्म॒कृतः॑ सु॒ते सचा॒ मधौ॒ न मक्ष॒ आस॑ते। इन्द्रे॒ कामं॑ जरि॒तारो॑ वसू॒यवो॒ रथे॒ न पाद॒मा द॑धुः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । हि । ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽकृतः॑ । सु॒ते । सचा॑ । मधौ॑ । न । मक्षः॑ । आस॑ते । इन्द्रे॑ । काम॑म् । ज॒रि॒तारः॑ । व॒सु॒ऽयवः॑ । रथे॑ । न । पाद॑म् । आ । द॒धुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे हि ते ब्रह्मकृतः सुते सचा मधौ न मक्ष आसते। इन्द्रे कामं जरितारो वसूयवो रथे न पादमा दधुः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे। हि। ते। ब्रह्मऽकृतः। सुते। सचा। मधौ। न। मक्षः। आसते। इन्द्रे। कामम्। जरितारः। वसुऽयवः। रथे। न। पादम्। आ। दधुः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कस्य समीपे के वसेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजंस्ते य इमे ब्रह्मकृतो वसूयवो जरितारः सुते मधौ मक्षो न सचासते। इन्द्रे त्वयि रथे पादं न काममा दधुस्ते हि सुखिनो जायन्ते ॥२॥

    पदार्थः

    (इमे) (हि) खलु (ते) तत्र (ब्रह्मकृतः) ये ब्रह्म धनमन्नं वा कुर्वन्ति ते (सुते) निष्पादिते (सचा) समवायेन (मधौ) मधुरादिगुणयुक्ते (न) इव (मक्षः) मक्षिकाः (आसते) उपतिष्ठन्ति (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति विदुषि राजनि (कामम्) (जरितारः) सत्यस्तावकाः (वसूयवः) वसूनि धनानि कामयमानाः (रथे) रमणीये याने (न) इव (पादम्) चरणम् (आ) समन्तात् (दधुः) धरन्ति ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यो विद्वान्राजा धर्मात्मा न्यायकारी स्यात्तर्ह्यस्य समीपे बहवो धार्मिका विद्वांसो भवेयुः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किसके समीप कौन बसें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (ते) आपके जो (इमे) यह (ब्रह्मकृतः) धन वा अन्न को सिद्ध करने (वसूयवः) धनों की कामना करने (जरितारः) और सत्य की स्तुति करनेवाले जन (सुते) उत्पन्न किये हुए (मधौ) मधुरादिगुणयुक्त स्थान में (मक्षः) मक्खियों के (न) समान (सचा) सम्बन्ध से (आसते) उपस्थित होते हैं (इन्द्रे) परमैश्वर्यवान् आप में (रथे) रमणीय यान में (पादम्) पैर जैसे धरें (न) वैसे (कामम्) कामना को (आ, दधुः) सब ओर से धारण करते हैं, वे (हि) ही सुखी होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो विद्वान् राजा धर्मात्मा न्यायकारी हो तो इसके समीप में बहुत धार्मिक विद्वान् हों ॥२॥

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    विषय

    विद्वानों का मधु मक्खी के समान मधुव्रत ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! हे विद्वन् ! हे प्रभो ! परमेश्वर ! ( इमे ब्रह्म-कृतः ) ये अन्न, धन और वेद द्वारा स्तुति करने वाले लोग ( मधौ मक्षः न ) मधु, वा मधुर पदार्थ पर मधुमक्खी के समान ( ते सुते ) तेरे ऐश्वर्य या शासन में ( आसते ) प्रेम पूर्वक विराजते हैं। और ( जरितारः ) उपदेष्टा, स्तुतिशील (वसूयवः) धन प्राण और नाना लोकों की कामना वाले लोग (रथे न पादम्) रथ में पैर के समान (इन्द्रे कामम् आदधुः) ऐश्वर्यप्रद्, परमैश्वर्ययुक्त तुझ प्रभु में ही अपनी समस्त कामना वा अभिलाषा को स्थिर करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मधुव्रती ब्राह्मण

    पदार्थ

    पदार्थ - हे राजन् ! विद्वन् ! (इमे ब्रह्म कृतः) = ये वेद द्वारा स्तुतिकर्ता लोग (मधौ मक्षः न) = मधुर पदार्थ पर मधुमक्खी के समान ते (सुते) = तेरे शासन में (आसते) = विराजते हैं और (जरितारः) = स्तुतिशील (वसूयवः) = धन और नाना लोकों की कामनावाले लोग रथे न पादम् - रथ में पैर के समान इन्द्रे (कामम् आदधुः) = परमैश्वर्ययुक्त तुझ प्रभु में ही अपनी कामना को स्थिर करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- विद्वान् लोग राष्ट्र में मधुमक्खी के समान स्वभाव-श्रुत वाले होवें। जैसे मधुमक्खी अनेकों प्रकार के पुष्पों पर बैठकर उनसे पराग का एक-एक कण लाती है, तथा संग्रह कर मधुर मधु का निर्माण करती है। इससे पुष्प को कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार विद्वान् भी विभिन्न स्थानों पर जाकर राष्ट्रोन्नति हेतु विभिन्न विद्याओं का संग्रह करें। राजा भी कर अधिक न ले।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जर विद्वान राजा धार्मिक, न्यायी असेल तर त्याच्याजवळ पुष्कळ धार्मिक विद्वान असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the celebrants have distilled and seasoned the soma of homage and worship for Indra, ruler of the social order of governance, they sit together like bees clustering round honey. The celebrants dedicated to the honour and prosperity of the ruling order place their trust and faith in Indra, the ruler and the law of governance, like travellers who place their foot on the step and ride the chariot to reach their goal.

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