ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 16
तवेदि॑न्द्राव॒मं वसु॒ त्वं पु॑ष्यसि मध्य॒मम्। सत्रा॒ विश्व॑स्य पर॒मस्य॑ राजसि॒ नकि॑ष्ट्वा॒ गोषु॑ वृण्वते ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । इत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒व॒मम् । वसु॑ । त्वम् । पु॒ष्य॒सि॒ । म॒ध्य॒मम् । स॒त्रा । विश्व॑स्य । प॒र॒मस्य॑ । रा॒ज॒सि॒ । नकिः॑ । त्वा॒ । गोषु॑ । वृ॒ण्व॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवेदिन्द्रावमं वसु त्वं पुष्यसि मध्यमम्। सत्रा विश्वस्य परमस्य राजसि नकिष्ट्वा गोषु वृण्वते ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठतव। इत्। इन्द्र। अवमम्। वसु। त्वम्। पुष्यसि। मध्यमम्। सत्रा। विश्वस्य। परमस्य। राजसि। नकिः। त्वा। गोषु। वृण्वते ॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 16
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यत्तवाऽवमं मध्यमं वस्वस्ति येन त्वं पुष्यसि यस्य विश्वस्य परमस्य धनस्य मध्ये सत्रा त्वं राजसि तत्र गोषु च त्वा केऽपि शत्रवो नकिरिद् वृण्वते ॥१६॥
पदार्थः
(तव) (इत्) (इन्द्र) (अवमम्) निकृष्टं रक्षकं वा (वसु) द्रव्यम् (त्वम्) (पुष्यसि) (मध्यमम्) मध्ये भवम् (सत्रा) सत्यम् (विश्वस्य) समग्रस्य (परमस्य) उत्कृष्टस्य (राजसि) (नकिः) निषेधे (त्वा) त्वाम् (गोषु) पृथिवीषु (वृण्वते) स्वीकुर्वन्ति ॥१६॥
भावार्थः
हे राजँस्त्वं सदैव निकृष्टमध्यमोत्तमानां धनानां न्यायेनैव सञ्चयं कुर्य्याः यस्य धर्मजत्वात् सत्यं धनं वर्तते तं किमपि दुःखं नाप्नोति ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् ! जो (तव) आपका (अवमम्) निकृष्ट वा रक्षा करनेवाला और (मध्यमम्) मध्यम (वसु) धन है जिससे (त्वम्) आप (पुष्यसि) पुष्ट होते जिस (विश्वस्य) समग्र (परमस्य) उत्तम धन के बीच (सत्रा) सत्य आप (राजसि) प्रकाशित होते हैं उसमें और (गोषु) पृथिवियों में (त्वा) आपको कोई भी शत्रु जन (नकिः) न (इत्) ही (वृण्वते) स्वीकार करते हैं ॥१६॥
भावार्थ
हे राजा ! आप सदैव निकृष्ट, मध्यम और उत्तम धनों का न्याय से ही संचय करो, जिसका धर्म्म से उत्पन्न होने से सत्य धन वर्त्तमान है, उसको कोई दुःख नहीं प्राप्त होता है ॥१६॥
विषय
युद्धों में भी सहायक प्रभु ही है ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! प्रभो ! ( अवमं वसु ) निकृष्ट, तुच्छ धन वा प्रजा का पालक धन, गौ, अन्न, भूमि, वस्त्रादि और ( मध्यमं वसु ) मध्यम कोटि का धन, चान्दी, सोना आदि सिक्के के पदार्थ अन्य पदार्थों के विनिमय का माध्यम बन सके जिससे (तां पुष्यसि ) उस प्रजा को पुष्ट करता है वह सब ( तव इत्) तेरा ही है और (परमस्य ) सर्वोत्कृष्ट ( विश्वस्य ) समस्त ऐश्वर्य के द्वारा ( सत्रा ) तू अपने सत्य और न्याय के बल से (राजसि) राजा के समान है। (गोषु ) सब भूमियों पर शासन करने के लिये ( त्वा ) तुझे (नकिः वृण्वते) भला कौन स्वीकार नहीं करे, सभी तुझे सर्वेश्वर स्वीकार करते हैं । अथवा - (नकिः त्वा वृण्वते) तुझे भूमियों पर कोई नहीं रोक सकता ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
राजा श्रेष्ठ प्रजा पुष्ट
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्र) = प्रभो ! (अवमं वसु) = निकृष्ट, प्रजा-पालक धन, भूमि, वस्त्रादि और (मध्ययम् वसु) = मध्यम कोटि का धन, चाँदी, सोना आदि विनिमय का माध्यम बन सके, जिससे (तां पुष्यसि) = उस प्रजा को पुष्ट करता है वह सब (तव इत्) = तेरा ही है और (परमस्य) = सर्वोत्कृष्ट (विश्वस्य) = समस्त ऐश्वर्य के द्वारा (सत्रा) = तू अपने सत्य के बल से (राजसि) = राजा के समान है। (गोषु) = भूमियों पर शासन के लिये (त्वा) = तुझे (नकिः वृण्वते) = भला कौन स्वीकार न करे।
भावार्थ
भावार्थ- जनहित एवं जनकल्याण के कार्यों में राजकोश के धन का व्यय करनेवाला राजा जनप्रिय एवं श्रेष्ठ होता है। ऐसे राजा की प्रजा भी पुष्ट एवं समृद्ध होती है। ऐसे राजा के राज्य की श्रीवृद्धि को कोई नहीं रोक सकता।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! तू उत्तम, मध्यम, निकृष्ट धन न्यायाने एकत्र कर. धर्माने उत्पन्न झाल्यामुळे ज्याचे धन सत्य असते, त्याला कोणतेही दुःख प्राप्त होत नाही. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, you protect, promote and rule over the lower orders of wealth of the world. You promote and rule over the middle order of the world’s wealth. And you rule and shine over wealth of the highest order of the world. You are the true and the eternal power. No one can resist you among the lands and lights of the world. Who would not accept you?
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