ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 20
त॒रणि॒रित्सि॑षासति॒ वाजं॒ पुरं॑ध्या यु॒जा। आ व॒ इन्द्रं॑ पुरुहू॒तं न॑मे गि॒रा ने॒मिं तष्टे॑व सु॒द्र्व॑म् ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठत॒रणिः॑ । इत् । सि॒सा॒स॒ति॒ । वाज॑म् । पुर॑म्ऽध्या । यु॒जा । आ । वः॒ । इन्द्र॑म् । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । न॒मे॒ । गि॒रा । ने॒मिम् । तष्टा॑ऽइव । सु॒ऽद्र्व॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तरणिरित्सिषासति वाजं पुरंध्या युजा। आ व इन्द्रं पुरुहूतं नमे गिरा नेमिं तष्टेव सुद्र्वम् ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठतरणिः। इत्। सिसासति। वाजम्। पुरम्ऽध्या। युजा। आ। वः। इन्द्रम्। पुरुऽहूतम्। नमे। गिरा। नेमिम्। तष्टाऽइव। सुऽद्र्वम् ॥२०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 20
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
यस्तरणिरिद्राजा युजा पुरन्ध्या वाजं सिषासति तं वः पुरहूतमिन्द्रं सुद्रवं नेमिं तष्टेव गिरा आ नमे ॥२०॥
पदार्थः
(तरणिः) तारकः (इत्) एव (सिषासति) सम्भक्तुमिच्छति (वाजम्) धनं विज्ञानं वा (पुरन्ध्या) या पुरूनर्थान् दधाति तया प्रज्ञया (युजा) योगयुक्तया (आ) (वः) युष्माकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (पुरुहूतम्) बहुभिः स्तुतम् (नमे) नमामि (गिरा) वाण्या (नेमिम्) चक्रम् (तष्टेव) तक्षेव (सुद्रवम्) यः सुष्ठु द्रवति गच्छति धावति तम् ॥२०॥
भावार्थः
यो राजा पूर्णाभ्यां विद्याविनयाभ्यां धर्म्येण च सत्यासत्ये विभज्य न्यायं करोति तं वयं सर्वे नमेम यथा तक्षा रथादिकं रचयति तथैव वयं सर्वाणि कार्याणि रचयेम ॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (तरणिः) तारनेवाला (इत्) ही राजा (युजा) योगयुक्त (पुरन्ध्या) बहुत अर्थों को धारण करनेवाली बुद्धि से (वाजम्) धन वा विज्ञान को (सिषासति) अच्छे प्रकार बाँटने की इच्छा करता है उस (वः) तुम्हारे (पुरुहूतम्) बहुतों से स्तुति को पाये हुए (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवान् को (सुद्रवम्) अच्छे प्रकार दौड़नेवाले (नेमिम्) पहिये को (तष्टेव) बढ़ई जैसे, वैसे (गिरा) वाणी से (आ, नमे) अच्छे प्रकार नमता हूँ ॥२०॥
भावार्थ
जो राजा पूर्ण विद्या और विनय तथा धर्मयुक्त व्यवहार से सत्य और असत्य को अलग कर न्याय करता है, उसको हम सब लोग नमते हैं, जैसे बढ़ई रथादि को बनाता है, वैसे हम लोग सब कामों को रचें ॥२०॥
विषय
राष्ट्रतारक राजा, संसारतारक प्रभु ।
भावार्थ
( तरणिः इत् ) संकट से तारने वाला, वा शीघ्रता से कार्य करने में कुशल पुरुष ही ( युजा पुरन्ध्या ) नगर को धारण करने वाली नीति वा नगररक्षक ( युजा ) सहायक वर्ग से ( वाजं सिशासति ) अपने ऐश्वर्य और बल को न्यायपूर्वक विभक्त करता है । हे प्रजाजनो ! मैं ( वः ) आप लोगों में से ( इन्द्रं ) ऐश्वर्य युक्त ( पुरुहूतं ) बहुतों में प्रशंसित ( सुद्र् वं ) उत्तम, स्थिर पुरुष को ( गिरा ) वाणी से ( तष्टा इव सुद्र् वं नेमिम् ) शिल्पी से बनाई काष्ठमय चक्र की धार के तुल्य ( नमे ) नमाऊं । उसको विनयशील करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
शिल्पकारों का सम्मान
पदार्थ
पदार्थ - (तरणिः इत्) = संकट से तारने में कुशल पुरुष ही (युजा पुरन्ध्या) = नगर- धारक नीति (युजा) = सहायक वर्ग से (वाजं सिशासति) = ऐश्वर्य को विभक्त करता है। हे प्रजाजनो ! मैं (वः) = आप में से (इन्द्रं) = ऐश्वर्य - युक्त (पुरुहूतं) = बहु प्रशंसित (सुद्र्वं) = स्थिर पुरुष को (गिरा) = वाणी से (तष्टा इव सुद्र्वं नेमिम्) = शिल्पी से बनाई काष्ठमय चक्र - धार के तुल्य (नमे) = नमाऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा एवं प्रजा मिलकर राष्ट्रोन्नति में सहायक उत्तम शिल्पकारों विभिन्न कारीगरों का सम्मान करें। विभिन्न प्रकार की शिल्पों में निष्णात शिल्पकारों को प्रोत्साहित करने से शिल्पकलाओं से सम्पन्न राष्ट्र समृद्ध होता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जो राजा पूर्ण विद्या व विनय आणि धर्मयुक्त व्यवहाराने सत्य असत्याला पृथक करून न्याय करतो त्याला आम्ही वंदन करतो. जसे सुतार रथ इत्यादी तयार करतो तसे आम्ही सर्व काम करावे. ॥ २० ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Only the saviour, a person of dynamic will and action joined in the soul with a controlled and dedicated mind, would share wealth and knowledge with the people and distribute it over the deserving. With words of prayer I bow to Indra, the ruler invoked by you all and draw his attention to you just like the carpenter bending flexible wood round as felly of the wheel. (The lord is flexible too, his heart melts with sympathy for the people.)
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