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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 111
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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भ꣣द्रो꣡ नो꣢ अ꣣ग्नि꣡राहु꣢꣯तो भ꣣द्रा꣢ रा꣣तिः꣡ सु꣢भग भ꣣द्रो꣡ अ꣢ध्व꣣रः꣢ । भ꣣द्रा꣢ उ꣣त꣡ प्रश꣢꣯स्तयः ॥१११॥

स्वर सहित पद पाठ

भ꣣द्रः꣢ । नः꣣ । अग्निः꣢ । आ꣡हु꣢꣯तः । आ । हु꣣तः । भद्रा꣢ । रा꣣तिः꣢ । सु꣢भग । सु । भग । भद्रः꣢ । अ꣣ध्वरः꣢ । भ꣣द्राः꣢ । उ꣣त꣢ । प्र꣡श꣢꣯स्तयः । प्र । श꣣स्तयः ॥१११॥


स्वर रहित मन्त्र

भद्रो नो अग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रो अध्वरः । भद्रा उत प्रशस्तयः ॥१११॥


स्वर रहित पद पाठ

भद्रः । नः । अग्निः । आहुतः । आ । हुतः । भद्रा । रातिः । सुभग । सु । भग । भद्रः । अध्वरः । भद्राः । उत । प्रशस्तयः । प्र । शस्तयः ॥१११॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 111
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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पदार्थ -

शब्दार्थ =  ( सुभग ) = हे शोभन ऐश्वर्यवाले !  ( नः ) = हमारे  ( आहुतः ) = सर्व प्रकार से ध्यान किये  ( अग्नि: ) = ज्ञानस्वरूप परमात्मा आप  ( भद्रः ) =  कल्याणकारी होओ। हमारा  ( रातिः ) = दान  ( भद्रा ) = श्रेष्ठ हो ।  ( अध्वरः भद्रः )  = हमारा यज्ञ सफल हो, ( उत ) = और  ( प्रशस्तयः ) = स्तुतियाँ  ( भद्राः ) = उत्तम हों ।

भावार्थ -

भावार्थ = हम सबको योग्य है, कि होम यज्ञ, दान, ध्यान, स्तुति, प्रार्थना आदि जो-जो अच्छे कर्म करें, श्रद्धा भक्ति और प्रेम नम्रता से करें, क्योंकि श्रद्धा और नम्रता के बिना, किये कर्म, हस्ती के स्नान के तुल्य नष्ट हो जाते हैं । इसलिए अश्रद्धा, अभिमान, नास्तिकता आदि दुर्गुणों को समीप न फटकने दो। वे पुरुष धन्य हैं, जो यज्ञ दान, तप, परोपकार, होम, स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि उत्तम कामों को श्रद्धा नम्रता और प्रेम से करते हैं । हे प्रभो ! हमें भी श्रद्धा नम्रता आदि गुणयुक्त और दान यज्ञादि उत्तम काम करनेवाला बनाओ। 

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