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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 115
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣡द्वो꣢ गाय सु꣣ते꣡ सचा꣢꣯ पुरुहू꣣ता꣢य꣣ स꣡त्व꣢ने । शं꣢꣫ यद्गवे꣣ न꣢ शा꣣कि꣡ने꣢ ॥११५॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣢त् । वः꣣ । गाय । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पु꣣रुहूता꣡य꣣ । पु꣣रु । हूता꣡य꣢ । स꣡त्व꣢꣯ने । शम् । यत् । ग꣡वे꣢꣯ । न꣢ । शा꣣कि꣡ने꣢ ॥११५॥


स्वर रहित मन्त्र

तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्गवे न शाकिने ॥११५॥


स्वर रहित पद पाठ

तत् । वः । गाय । सुते । सचा । पुरुहूताय । पुरु । हूताय । सत्वने । शम् । यत् । गवे । न । शाकिने ॥११५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 115
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

शब्दार्थ = हे प्रभु के प्रेमी जन ! ( यत् ) = जो  ( गवे ) = पृथिवी के  ( न ) = समान  ( वः ) = तुम  ( सुते ) = स्तोता के लिए  ( शम् ) = सुखदायक हो   ( तत् ) = उसको  ( सत्वने ) = शत्रुओं के नाश करनेवाले  ( शाकिने ) = शक्तिमान्  ( पुरुहूताय ) = वेदों में बहुत स्तुति किये गए इन्द्र के लिए  ( सचा ) =  मिलकर  ( गाय ) = गायन कर ।

भावार्थ -

भावार्थ = सब मनुष्यों को चाहिए कि बाह्य आभ्यन्तर सब शत्रु विनाशक परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए उसके गुणों का बखान मिल-जुलकर करें। जैसे पृथिवी सबका आधार होने से सबको सुख दे रही हैं। ऐसे ही परमात्म देव सबका आधार और सबके सुखदायक है, उसकी सदा प्रेम से भक्ति करनी चाहिए।

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