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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1836
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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धे꣣नु꣡ष्ट꣢ इन्द्र सू꣣नृ꣢ता꣣ य꣡ज꣢मानाय सुन्व꣣ते꣢ । गा꣡मश्वं꣢꣯ पि꣣प्यु꣡षी꣢ दुहे ॥१८३६॥

स्वर सहित पद पाठ

धे꣣नुः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । सूनृ꣡ता꣢ । सु꣣ । नृ꣡ता꣢꣯ । य꣡ज꣢꣯मानाय । सु꣣न्वते꣢ । गाम् । अ꣡श्व꣢꣯म् । पि꣣प्यु꣡षी꣢ । दु꣣हे ॥१८३६॥


स्वर रहित मन्त्र

धेनुष्ट इन्द्र सूनृता यजमानाय सुन्वते । गामश्वं पिप्युषी दुहे ॥१८३६॥


स्वर रहित पद पाठ

धेनुः । ते । इन्द्र । सूनृता । सु । नृता । यजमानाय । सुन्वते । गाम् । अश्वम् । पिप्युषी । दुहे ॥१८३६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1836
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

शब्दार्थ = हे  ( इन्द्र ) = परमेश्वर ! ( ते धेनुः ) = आपकी वेद वाणी रूप गौ  ( सूनृता ) = सच्ची  ( पिप्युषी ) = वृद्धि करनेवाली  ( सुन्वते ) = सोमयाजी  ( यजमानाय ) = यजमान के लिए  ( गाम् अश्वम् दुहे ) = गौ अश्वादि धन को भरपूर करती है ।

भावार्थ -

भावार्थ = हे परमेश्वर ! आपकी वेद रूपी वाणी को जो पुरुष श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से पढ़ते-पढाते और वेदोक्त महायज्ञादि उत्तम कर्मों को करते-कराते हैं । उनको ब्रह्मविद्या और गौ-घोड़ा आदि उपकारक पशु तथा धन प्राप्त होता है । वे धर्मात्मा पुरुष ही परमात्मा की उपासना में सदा सुखी रहते हैं ।

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