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अथर्ववेद > काण्ड 18 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 4/ मन्त्र 45
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    सर॑स्वतींदेव॒यन्तो॑ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा॑ने। सर॑स्वतीं सु॒कृतो॑ हवन्ते॒सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं॑ दात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वतीम् । दे॒व॒ऽयन्त॑: । ह॒व॒न्ते॒ । सर॑स्वतीम् । अ॒ध्व॒रे । ता॒यमा॑ने । सर॑स्वतीम् । सु॒ऽकृत॑: । ह॒व॒न्ते॒ । सर॑स्वती । दा॒शुषे॑ । वार्य॑म् । दा॒त् ॥४.४५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वतींदेवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने। सरस्वतीं सुकृतो हवन्तेसरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वतीम् । देवऽयन्त: । हवन्ते । सरस्वतीम् । अध्वरे । तायमाने । सरस्वतीम् । सुऽकृत: । हवन्ते । सरस्वती । दाशुषे । वार्यम् । दात् ॥४.४५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 4; मन्त्र » 45

    पदार्थ -

    शब्दार्थ =  ( सरस्वतीम् ) = वेद विद्या को  ( देवयन्तः ) = दिव्य गुणों को चाहनेवाले विद्वान् पुरुष   ( तायमाने ) = विस्तृत होते हुए  ( अध्वरे ) = हिंसा रहित यज्ञादि कर्मों में  ( हवन्ते ) = बुलाते हैं।  ( सरस्वतीम् ) = सरस्वती को  ( सुकृतः ) = सुकृती अर्थात् पुण्यात्मा धार्मिक लोग  ( हवन्ते ) = बुलाते हैं ।  ( सरस्वती ) =  विद्या  ( दाशुषे ) = विद्यादान करनेवाले को  ( वार्यम् ) = श्रेष्ठ पदार्थों को  ( दात् ) = देती है ।

    भावार्थ -

    भावार्थ = विद्या महारानी उस में भी विशेष करके ब्रह्मविद्या को बड़े-बड़े विद्वान् पुरुष चाहते हैं और यज्ञादिक उत्तम व्यवहारों में भी उसी वेद विद्या महारानी की आवश्यकता है। संसार के सब धर्मात्मा पुरुष इस वेदविद्या रूपी सरस्वती की इच्छा करते हैं। और सरस्वती महारानी भी मोक्ष पर्यन्त सब सुखों को देती है।

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