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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - चतुष्पदा जगती सूक्तम् - अभय सूक्त

    अभ॑यं नः करत्य॒न्तरि॑क्ष॒मभ॑यं॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे। अभ॑यं प॒श्चादभ॑यं पु॒रस्ता॑दुत्त॒राद॑ध॒रादभ॑यं नो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभ॑यम्। नः॒। क॒र॒ति॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। अभ॑यम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। उ॒भे इति॑। इ॒मे इति॑। अभ॑यम्। प॒श्चात्। अभ॑यम्। पु॒रस्ता॑त्। उ॒त्ऽत॒रात्। अ॒ध॒रात्। अभ॑यम्। नः॒। अ॒स्तु॒ ॥१५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं द्यावापृथिवी उभे इमे। अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुत्तरादधरादभयं नो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभयम्। नः। करति। अन्तरिक्षम्। अभयम्। द्यावापृथिवी इति। उभे इति। इमे इति। अभयम्। पश्चात्। अभयम्। पुरस्तात्। उत्ऽतरात्। अधरात्। अभयम्। नः। अस्तु ॥१५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 15; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    शब्दार्थ = ( अन्तरिक्षम् नः अभयम् करति ) = मध्य लोक हमारे लिए भय  राहित्य करे  ( इमे उभे द्यावापृथिवी अभयम् ) = सब प्राणियों के निवास स्थान, यह दोनों द्युलोक पृथिवी लोक भय राहित्य को करें ।  ( पश्चात् अभयम् ) = पश्चिम दिशा में हमको अभय हो ।  ( पुरस्तात् अभयम् ) = पूर्व  दिशा में अभय  ( उत्तरात् ) = उत्तर दिशा में ( अधरात् ) = उत्तर दिशा से उलटी दक्षिण दिशा में  ( नः अभयम् अस्तु ) =  हमें अभय हो ।

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे जगदीश्वर ! अन्तरिक्ष, द्युलोक, पृथिवी, पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा आदि यह सब आपकी कृपा से सदा भय-राहित्य को करनेवाले हों। हम सब निर्भय होकर आपकी प्रेम भक्ति में लग जाएँ ।

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