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अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
अ॒हं रु॒द्राय॒ धनु॒रा त॑नोमि ब्रह्म॒द्विषे॒ शर॑वे॒ हन्त॒वा उ॑। अ॒हं जना॑य स॒मदं॑ कृणोम्य॒हं द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । रु॒द्राय॑ । धनु॑: । आ । त॒नो॒मि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑ । शर॑वे । हन्त॒वै । ऊं॒ इति॑ । अ॒हम् । जना॑य । स॒ऽमद॑म् । कृ॒णो॒मि॒ । अ॒हम् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥३०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । रुद्राय । धनु: । आ । तनोमि । ब्रह्मऽद्विषे । शरवे । हन्तवै । ऊं इति । अहम् । जनाय । सऽमदम् । कृणोमि । अहम् । द्यावापृथिवी इति । आ । विवेश ॥३०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( अहम् ) = मैं ( रुद्राय ) = ज्ञानदाता व दु:ख के नाशक पुरुष के हित के लिए और ( ब्रह्मद्विषे ) = ब्रह्मज्ञानी, वेदपाठी, विद्वानों के द्वेषी ( शरवे ) = हिंसक के ( हन्तवे ) = मारने को ( उ ) = ही ( धनु: ) = धनुष ( आतनोमि ) = तानता हू ( अहम् ) = में ( जनाय ) = भक्त जन के लिए ( समदम् कृणोमि ) = आनन्द सहित इस जगत् को करता हूं। ( अहम् द्यावापृथिवी ) = मैंने सूर्य और पृथिवी लोक में ( आविवेश ) = सब ओर से प्रवेश किया है ।
भावार्थ -
भावार्थ = परमेश्वर, उत्तमज्ञानी पुरुषों की रक्षा के लिए, श्रेष्ठों के दुःखदायक पुरुषों के नाश के लिए, सदा उद्यत रहता है और अपने भक्तों को सदा सब स्थानों में आनन्द देता है ।
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