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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    प॒श्चात्पु॒रस्ता॑दध॒रादु॒तोत्त॒रात्क॒विः काव्ये॑न॒ परि॑ पाह्यग्ने। सखा॒ सखा॑यम॒जरो॑ जरि॒म्णे अग्ने॒ मर्ताँ॒ अम॑र्त्य॒स्त्वं नः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒श्चात् । पु॒रस्ता॑त् । अ॒ध॒रात् । उ॒त । उ॒त्त॒रात् । क॒वि: । काव्ये॑न । परि॑ । पा॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । सखा॑ । सखा॑यम् । अ॒जर॑: । ज॒रि॒म्णे । अग्ने॑ । मर्ता॑न् । अम॑र्त्य: । त्वम् । न॒: ॥३.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्चात्पुरस्तादधरादुतोत्तरात्कविः काव्येन परि पाह्यग्ने। सखा सखायमजरो जरिम्णे अग्ने मर्ताँ अमर्त्यस्त्वं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्चात् । पुरस्तात् । अधरात् । उत । उत्तरात् । कवि: । काव्येन । परि । पाहि । अग्ने । सखा । सखायम् । अजर: । जरिम्णे । अग्ने । मर्तान् । अमर्त्य: । त्वम् । न: ॥३.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 20

    पदार्थ -

    शब्दार्थ = हे अग्ने  ! ( पश्चात् ) = पश्चिम  ( पुरस्तात् ) = पूर्व  ( अधरात् ) = नीचे वा दक्षिण  ( उत्तरात् ) = उत्तर दिशा से  ( कविः ) = सर्वज्ञ आप  ( काव्येन ) = अपनी सर्वज्ञता और रक्षण व्यापार करके  ( परिपाहि ) = सर्वथा रक्षा करें  ( सखा ) = हमारे सखा रूप आप  ( सखायम् )  = और आपके सखा रूप जो हम उनकी रक्षा कीजिये  ( अजरः ) = जरा वृद्धावस्था से रहित आप  ( जरिम्णे ) = अत्यन्त जीर्ण जो हम उनकी रक्षा कीजिये  ( अमर्त्यः त्वम् ) = अमर आप  ( मर्तान् नः ) = मरणधर्मा जो हम उनकी रक्षा कीजिये ।

    भावार्थ -

    भावार्थ = हे ज्ञानमय ज्ञानप्रद परमात्मन् ! आप अपनी सर्वज्ञता और रक्षा से पूर्व आदि सब दिशाओं में हमारी रक्षा करें। आप ही हमारे सच्चे मित्र हैं, आप जरा-मरण से रहित अजर-अमर हैं, हम तो जरा-मरण युक्त हैं आपके बिना हमारा कोई रक्षक नहीं, हम आपकी शरण में आये हैं आप ही रक्षा करें ।

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