ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 3
की॒दृङ्ङिन्द्र॑: सरमे॒ का दृ॑शी॒का यस्ये॒दं दू॒तीरस॑रः परा॒कात् । आ च॒ गच्छा॑न्मि॒त्रमे॑ना दधा॒माथा॒ गवां॒ गोप॑तिर्नो भवाति ॥
स्वर सहित पद पाठकी॒दृक् । इन्द्रः॑ । स॒र॒मे॒ । का । दृ॒शी॒का । यस्य॑ । इ॒दम् । दू॒तीः । अस॑रः । प॒रा॒कात् । आ । च॒ । गच्छा॑त् । मि॒त्रम् । ए॒न॒ । द॒धा॒म॒ । अथ॑ । गवा॑म् । गोऽप॑तिः । नः॒ । भ॒वा॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कीदृङ्ङिन्द्र: सरमे का दृशीका यस्येदं दूतीरसरः पराकात् । आ च गच्छान्मित्रमेना दधामाथा गवां गोपतिर्नो भवाति ॥
स्वर रहित पद पाठकीदृक् । इन्द्रः । सरमे । का । दृशीका । यस्य । इदम् । दूतीः । असरः । पराकात् । आ । च । गच्छात् । मित्रम् । एन । दधाम । अथ । गवाम् । गोऽपतिः । नः । भवाति ॥ १०.१०८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(सरमे) हे माध्यमिका वाक् स्तनयित्नु गर्जना ! (इन्द्रः कीदृङ्) वह इन्द्र कैसा है (का दृशीका) उसकी दृष्टि शक्ति कैसी है (यस्य दूती) जिसकी दूती बनी तू (पराकात्) दूर स्थान से (इदम् असरः) इस स्थान पर प्राप्त हुई (आगच्छात्) आ जावे वह इन्द्र (च) और (एन मित्रं दधाम) इसे मित्र धारण करावें-बनावें हम (अथ) और (नः-गवां पतिः-भवाति) हमारे अधीन गौओं-रश्मियों जलों स्वामी हो जावे-बने ॥३॥ आध्यात्मिकयोजना−हे शरीर में सरणशील चेतना ! वह इन्द्र कैसा है, उसकी कैसी दृष्टिशक्ति है, जिसकी दूती तू दूर से इस स्थान पर प्राप्त हुई है, वह देव इन्द्र आजावे, इसे मित्ररूप में धारण करें-बनावें और वह इन्द्रियवृत्तियों का रक्षक होवे ॥३॥
भावार्थ - शक्तिशाली विद्युत् की प्रेरित गर्जना है, विद्युत् को शक्तशाली सिद्ध करती है, जो मेघों में गृहरश्मियों जलों को बाहिर कर सकता है ॥३॥
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