ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 4
नाहं तं वे॑द॒ दभ्यं॒ दभ॒त्स यस्ये॒दं दू॒तीरस॑रं परा॒कात् । न तं गू॑हन्ति स्र॒वतो॑ गभी॒रा ह॒ता इन्द्रे॑ण पणयः शयध्वे ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒हम् । तम् । वे॒द॒ । दभ्य॑म् । दभ॑त् । सः । यस्य॑ । इ॒दम् । दू॒तीः । अस॑रम् । प॒रा॒कात् । न । तम् । गू॒ह॒न्ति॒ । स्र॒वतः॑ । ग॒भी॒राः । ह॒ताः । इन्द्रे॑ण । प॒ण॒यः॒ । श॒य॒ध्वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाहं तं वेद दभ्यं दभत्स यस्येदं दूतीरसरं पराकात् । न तं गूहन्ति स्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयः शयध्वे ॥
स्वर रहित पद पाठन । अहम् । तम् । वेद । दभ्यम् । दभत् । सः । यस्य । इदम् । दूतीः । असरम् । पराकात् । न । तम् । गूहन्ति । स्रवतः । गभीराः । हताः । इन्द्रेण । पणयः । शयध्वे ॥ १०.१०८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(अहं तम्) मैं उस (दभ्यं न वेद) दम्भक प्रहारक शस्त्र को नहीं जानती हूँ (सः-दभत्) जिसे वह प्रहरित करता है-फेंकता है (यस्य दूतीः) जिसकी दूती-प्रेमिका बनी हुई (पराकात्) दूर से (इदम्-असरम्) इस स्थान को प्राप्त होती हूँ (तं न गूहन्ति) उस इन्द्र को गुप्त नहीं कर सकते, बन्धन में नहीं डाल सकते (इन्द्रेण हताः) उस विद्युद्देव से ताड़ित हुए (गभीराः पणयः) गम्भीर वणिजों की भाँति जलधन से पूर्ण मेघ (स्रवतः शयध्वे) जल स्रवण करते हुए-बहाते हुए धराशायी हो जाते हो ॥४॥ आध्यात्मिकयोजना−मैं चेतनशक्ति उस प्रहार को नहीं जानती हूँ जिसको वह फैंकता है, दूर से उसकी दूती इस स्थान को मोक्षधाम से प्राप्त हुई हूँ। उस इन्द्र को कोई आवृत नहीं कर सकते हैं, तुम विषयों में गहरे गये हुए इन्द्रिय प्राणों उससे धकेले हुए-शरीर में पड़े हुए हो ॥४॥
भावार्थ - विद्युत् में इतनी शक्ति है कि उसकी ताड़ना से जल भरे मेघ जल बरसाते हुए लीन हो जाते हैं ॥४॥
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