ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 2
अ॒हं सोम॑माह॒नसं॑ बिभर्म्य॒हं त्वष्टा॑रमु॒त पू॒षणं॒ भग॑म् । अ॒हं द॑धामि॒ द्रवि॑णं ह॒विष्म॑ते सुप्रा॒व्ये॒३॒॑ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । सोम॑म् । आ॒ह॒नस॑म् । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । त्वष्टा॑रम् । उ॒त । पू॒षण॑म् । भग॑म् । अ॒हम् । द॒धा॒मि॒ । द्रवि॑णम् । ह॒विष्म॑ते । सु॒प्र॒ऽअ॒व्ये॑ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् । अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये३ यजमानाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । सोमम् । आहनसम् । बिभर्मि । अहम् । त्वष्टारम् । उत । पूषणम् । भगम् । अहम् । दधामि । द्रविणम् । हविष्मते । सुप्रऽअव्ये । यजमानाय । सुन्वते ॥ १०.१२५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(अहम्) मैं (आहनम्) दृष्टिदोष को नष्ट करनेवाले या अशान्तिनाशक (सोमं बिभर्मि) चन्द्रमा को धारण करती हूँ (अहं त्वष्टारम्) मैं सूर्य को (उत) और (पूषणं भगम्) वायु तथा भजनीय यज्ञ को धारण करती हूँ (अहम्) मैं (हविष्मते) हवि देनेवाले के लिये (सुप्राव्ये) विद्वानों को भोजनादि से अच्छी प्रकार प्रकृष्टता से तृप्त करनेवाले के लिये (सुन्वते) विद्वानों के पानार्थ सोमरस निकालनेवाले के लिये (यजमानाय) यजमान आत्मा-के लिये (द्रविणं दधामि) धन को धारण करती हूँ दान के लिये ॥२॥
भावार्थ - पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति चन्द्रमा सूर्य वायु और यज्ञ को धारण करती है तथा होम करनेवाले विद्वानों को तृप्त करनेवाले और उनके लिये सोमरस निकालनेवाले के लिये यजमान आत्मा के लिये धन को धारण करती है ॥२॥
इस भाष्य को एडिट करें