ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 125/ मन्त्र 1
ऋषिः - वागाम्भृणी
देवता - वागाम्भृणी
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒हं रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिश्चराम्य॒हमा॑दि॒त्यैरु॒त वि॒श्वदे॑वैः । अ॒हं मि॒त्रावरु॑णो॒भा बि॑भर्म्य॒हमि॑न्द्रा॒ग्नी अ॒हम॒श्विनो॒भा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । रु॒द्रेभिः॑ । वसु॑ऽभिः । च॒रा॒मि॒ । अ॒हम् । आ॒दि॒त्यैः । उ॒त । वि॒श्वऽदे॑वैः । अ॒हम् । मि॒त्रावरु॑णा । उ॒भा । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒हम् । अ॒श्विना॑ । उ॒भा ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । रुद्रेभिः । वसुऽभिः । चरामि । अहम् । आदित्यैः । उत । विश्वऽदेवैः । अहम् । मित्रावरुणा । उभा । बिभर्मि । अहम् । इन्द्राग्नी इति । अहम् । अश्विना । उभा ॥ १०.१२५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 125; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति वसुओं रुद्रों आदित्यों सूर्य चन्द्रमा को धारण करनेवाली सर्वत्र व्याप्त, मनुष्य को ब्रह्मा ऋषि बनानेवाली सब कामनाओं को पूरण करनेवाली है इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(अहम्) मैं महान् परमेश्वर की वाक्-ज्ञानशक्ति (वसुभिः) पृथिवी आदि आठ वसुओं से (रुद्रेभिः) ग्यारह प्राणों से (आदित्यैः) बारह मासों के साथ (उत) और (विश्वदेवैः) ऋतुओं के साथ (चरामि) प्राप्त होती हूँ (अहम्) मैं (उभा-मित्रा वरुणा) दोनों दिन रात को (इन्द्राग्नी) अग्नि विद्युत् को (उभा-अश्विना) दोनों द्युलोक पृथिवीलोक को (बिभर्मि) धारण करती हूँ ॥१॥
भावार्थ - परमेश्वर की प्रतिनिधि मैं पारमेश्वरी ज्ञानशक्ति पृथिवी आदि आठ वस्तुओं, प्राणरूप ग्यारह रुद्रों, बारह मासों, अग्नि, विद्युत्, दिन रातों और द्युलोक पृथिवीलोक को धारण करती हूँ ॥१॥
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