ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 1
ऋषिः - मुनयो वातरशनाः
देवता - केशिनः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
के॒श्य१॒॑ग्निं के॒शी वि॒षं के॒शी बि॑भर्ति॒ रोद॑सी । के॒शी विश्वं॒ स्व॑र्दृ॒शे के॒शीदं ज्योति॑रुच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठके॒शी । अ॒ग्निम् । के॒शी । वि॒षम् । के॒शी । बि॒भ॒र्ति॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । के॒शी । विश्व॑म् । स्वः॑ । दृ॒शे । के॒शी । इ॒दम् । ज्योतिः॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
केश्य१ग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी । केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठकेशी । अग्निम् । केशी । विषम् । केशी । बिभर्ति । रोदसी इति । केशी । विश्वम् । स्वः । दृशे । केशी । इदम् । ज्योतिः । उच्यते ॥ १०.१३६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में सूर्य और ग्रहों को वातसूत्र धारण करते हैं, ग्रहों को प्रकाश सूर्य देता है, जल को ऊपर खींचता है, ओषधियों में रस देता है।
पदार्थ -
(केशी) रश्मिवाला सूर्य (अग्निं बिभर्ति) अग्नि को धारण करता है उसके अन्दर होने से और उसके द्वारा अन्य गोले के प्रकाश्यमान होने से (केशी विषम्) सूर्य जल को धारण करता है गगन में (केशी रोदसी) सूर्य द्युलोक पृथिविलोक को धारण करता है (केशी विश्वम्) सूर्य सारे विश्व को धारण करता है (केशी स्वर्दृशे) सूर्य सब जगत् को दिखाने के लिए उदय होता है (केशी ज्योतिः-इदम्-उच्यते) सूर्य प्रत्यक्ष ज्योति कहा जाता है ॥१॥
भावार्थ - सूर्य रश्मिमान् है, अग्नि को धारण करता है, अन्य पिण्डों को प्रकाशित करता है, आकाश में जल को धारण करता है, द्युलोक पृथिवीलोक को धारण करता है, सब जगत् को दिखाने के लिए यह एक महान् ज्योति है ॥१॥
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