ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 136/ मन्त्र 2
मुन॑यो॒ वात॑रशनाः पि॒शङ्गा॑ वसते॒ मला॑ । वात॒स्यानु॒ ध्राजिं॑ यन्ति॒ यद्दे॒वासो॒ अवि॑क्षत ॥
स्वर सहित पद पाठमुन॑यः । वात॑ऽरशनाः । पि॒शङ्गाः॑ । व॒स॒ते॒ । मला॑ । वात॑स्य । अनु॑ । ध्राजि॑म् । यन्ति॑ । यत् । दे॒वासः॑ । अवि॑क्षत ॥
स्वर रहित मन्त्र
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला । वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥
स्वर रहित पद पाठमुनयः । वातऽरशनाः । पिशङ्गाः । वसते । मला । वातस्य । अनु । ध्राजिम् । यन्ति । यत् । देवासः । अविक्षत ॥ १०.१३६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 136; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(वातरशनाः) वात जिनके नियन्त्रण करनेवाले हैं, ऐसे (पिशङ्गा) सुनहरे (मुनयः) मननीय मनन के योग्य (मला वसते) अन्धकारों को-ढाँपते हैं-नष्ट करते हैं (वातस्य ध्राजिम्) वायु के वेग को (अनु यन्ति) अनुगमन करते हैं (यत्-देवासः-अविक्षत) जो द्योतमान ग्रह नक्षत्र आकाशमण्डल में प्रविष्ट हैं ॥२॥
भावार्थ - सूर्य के अतिरिक्त अन्य पिण्ड आकाश में वातसूत्रों से खिंचे हुए सुनहरे चमचमाते हुए अन्धकार को मिटाते हुए वायु के वेग के समान गति करते हुए ग्रहतारे आकाश में वर्तमान हैं, उनका ज्ञान करना चाहिये ॥२॥
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