ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 151/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्रद्धा कामायनी
देवता - श्रद्धा
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्रि॒यं श्र॑द्धे॒ दद॑तः प्रि॒यं श्र॑द्धे॒ दिदा॑सतः । प्रि॒यं भो॒जेषु॒ यज्व॑स्वि॒दं म॑ उदि॒तं कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒यम् । श्र॒द्धे॒ । दद॑तः । प्रि॒यम् । श्र॒द्धे॒ । दिदा॑सतः । प्रि॒यम् । भो॒जेषु॑ । यज्व॑सु । इ॒दम् । मे॒ । उ॒दि॒तम् । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियं श्रद्धे ददतः प्रियं श्रद्धे दिदासतः । प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रियम् । श्रद्धे । ददतः । प्रियम् । श्रद्धे । दिदासतः । प्रियम् । भोजेषु । यज्वसु । इदम् । मे । उदितम् । कृधि ॥ १०.१५१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 151; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(श्रद्धे) हे सद्-आस्था (मे) मेरे (इदम्-उदितम्) मेरे इस घोषित वचन को (ददतः) दान देते हुए मनुष्य का (प्रियं कृधि) कल्याण कर (श्रद्धे) हे सद्-आस्था ! (दिदासतः) देने की इच्छा रखनेवाले मनुष्य का कल्याण कर (भोजेषु) दान के भोक्ता जनों में तथा (यज्वसु) दक्षिणा ग्रहण करनेवाले ऋत्विजों में कल्याण कर ॥२॥
भावार्थ - श्रद्धा ऐश्वर्य के ऊँचे स्थान पर बैठती है, इसलिए श्रद्धायुक्त मेरे ये घोषित वचन सफल हों, दान देते हुए का और दान देने की इच्छा रखते हुए का कल्याण हो और दान का भोग करनेवालों का भी कल्याण हो और यज्ञ की दक्षिणा लेते ऋत्विजों का भी कल्याण हो, इस प्रकार श्रद्धा से देनेवाले श्रद्धा से यज्ञ करानेवाले, श्रद्धा से खानेवाले और श्रद्धा से दक्षिणा लेनेवाले ये सब श्रद्धायुक्त हों ॥२॥
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