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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 170 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 170/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विभ्राट् सूर्यः देवता - सूर्यः छन्दः - आस्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    वि॒भ्राज॒ञ्ज्योति॑षा॒ स्व१॒॑रग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः । येने॒मा विश्वा॒ भुव॑ना॒न्याभृ॑ता वि॒श्वक॑र्मणा वि॒श्वदे॑व्यावता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभ्राज॑म् । ज्योति॑षा । स्वः॑ । अग॑च्छः । रो॒च॒नम् । दि॒वः । येन॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । आऽभृ॑ता । वि॒श्वऽक॑र्मणा । वि॒श्वदे॑व्यऽवता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभ्राजञ्ज्योतिषा स्व१रगच्छो रोचनं दिवः । येनेमा विश्वा भुवनान्याभृता विश्वकर्मणा विश्वदेव्यावता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभ्राजम् । ज्योतिषा । स्वः । अगच्छः । रोचनम् । दिवः । येन । इमा । विश्वा । भुवनानि । आऽभृता । विश्वऽकर्मणा । विश्वदेव्यऽवता ॥ १०.१७०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 170; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 28; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (ज्योतिषा विभ्राजन्) ज्योति से विशेष प्रकाशमान होता हुआ (दिवः-रोचनम्) द्युलोक का चमकनेवाला (स्वः-अगच्छः) तू सबको प्राप्त होता है, (येन विश्वकर्मणा) जिस-सर्वकर्म सामर्थ्यवाले (विश्व-देव्यावता) समस्त देवगुणों के प्रभाववाले से (इमा विश्वा भुवनानि) ये सब लोक-लोकान्तर (आभृता) धारित हैं ॥४॥

    भावार्थ - सूर्य अपनी ज्योति से प्रकाशमान, द्युलोक का प्रकाशनिमित्त सबको दृष्टिगोचर होता है, सब कर्मसामर्थ्य और सब दिव्य गुणवाले प्रभाव से सब लोक-लोकान्तरों को धारण करता है, वह सूर्य है ॥४॥

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