ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
ऋषिः - इन्द्रो वैकुण्ठः
देवता - इन्द्रो वैकुण्ठः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
ए॒ता विश्वा॒ सव॑ना तूतु॒मा कृ॑षे स्व॒यं सू॑नो सहसो॒ यानि॑ दधि॒षे । वरा॑य ते॒ पात्रं॒ धर्म॑णे॒ तना॑ य॒ज्ञो मन्त्रो॒ ब्रह्मोद्य॑तं॒ वच॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । विश्वा॑ । सव॑ना । तू॒तु॒मा । कृ॒षे॒ । स्व॒यम् । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । यानि॑ । द॒धि॒षे । वरा॑य । ते॒ । पात्र॑म् । धर्म॑णे । तना॑ । य॒ज्ञः । मन्त्रः॒ । ब्रह्म॑ । उ॒त्ऽय॑तम् । वचः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता विश्वा सवना तूतुमा कृषे स्वयं सूनो सहसो यानि दधिषे । वराय ते पात्रं धर्मणे तना यज्ञो मन्त्रो ब्रह्मोद्यतं वच: ॥
स्वर रहित पद पाठएता । विश्वा । सवना । तूतुमा । कृषे । स्वयम् । सूनो इति । सहसः । यानि । दधिषे । वराय । ते । पात्रम् । धर्मणे । तना । यज्ञः । मन्त्रः । ब्रह्म । उत्ऽयतम् । वचः ॥ १०.५०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 50; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 6
पदार्थ -
(एता विश्वा सवना तूतुमा कृषे) हे परमात्मन् ! इन सब निष्पादन योग्य स्तुति-प्रार्थना-उपासना कर्मों को तू शीघ्र स्वीकार करता है (सहसः सूनो) अध्यात्मबल के उत्पादक परमात्मा ! (यानि स्वयं दधिषे) जिनको तू स्वयं विधान करता है, वेदों में उपदेश देता है, (ते पात्रं धर्मणे वराय तना) तेरे पात्रभूत तुझको वरनेवाले-ध्यान करनेवाले के लिए अध्यात्मधन होवें (यज्ञः-मन्त्रः-ब्रह्मोद्यतं वचः) उस पात्रभूत के-स्तोता के यज्ञ-श्रेष्ठकर्म, मनन, ज्ञान, प्रकट हुए-हुए स्तुतिवचन तेरे लिए होवें ॥६॥
भावार्थ - वेदों में कहें स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि कर्म परमात्मा को स्वीकार होते हैं। उस पात्रभूत स्तुतिकर्ता के लिए परमात्मा आध्यात्मिक धन प्रदान करता है, इसलिए स्तुतिकर्ता अपने श्रेष्ठकर्म, मनन, ज्ञान आदि परमात्मा के प्रति समर्पित करे ॥६॥
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