ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 6
ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो अद॑धा॒ज्ज्योति॑षि॒ ज्योति॑र॒न्तर्यो असृ॑ज॒न्मधु॑ना॒ सं मधू॑नि । अध॑ प्रि॒यं शू॒षमिन्द्रा॑य॒ मन्म॑ ब्रह्म॒कृतो॑ बृ॒हदु॑क्थादवाचि ॥
स्वर सहित पद पाठयः । अद॑धात् । ज्योति॑षि । ज्योतिः॑ । अ॒न्तः । यः । असृ॑जत् । मधु॑ना । सम् । मधू॑नि । अध॑ । प्रि॒यम् । शू॒षम् । इन्द्रा॑य । मन्म॑ । ब्र॒ह्म॒ऽकृतः॑ । बृ॒हत्ऽउ॑क्थात् । अ॒वा॒चि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अदधाज्ज्योतिषि ज्योतिरन्तर्यो असृजन्मधुना सं मधूनि । अध प्रियं शूषमिन्द्राय मन्म ब्रह्मकृतो बृहदुक्थादवाचि ॥
स्वर रहित पद पाठयः । अदधात् । ज्योतिषि । ज्योतिः । अन्तः । यः । असृजत् । मधुना । सम् । मधूनि । अध । प्रियम् । शूषम् । इन्द्राय । मन्म । ब्रह्मऽकृतः । बृहत्ऽउक्थात् । अवाचि ॥ १०.५४.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
पदार्थ -
(यः) जो परमात्मा (ज्योतिषि-अन्तः-ज्योतिः-अदधात्) ज्योतिष्मान् के अन्दर ज्योति-तेज धारण करता है-स्थापित करता है (यः-मधुना मधूनि सम् असृजत्) जो माधुर्य से या मधुररस से मधुवाली वस्तुओं को संयुक्त करता है (अद्य) इस जीवन अथवा जन्म में (इन्द्राय) परमात्मा के लिए (प्रियं शूषं मन्म) प्रिय बलवान् मनोभाव-संकल्प या मन्त्र को (बृहदुक्थात्-ब्रह्मकृतः-अवाचि) महान् प्रशस्त वाणियाँ जिसमें हैं, ऐसे वेद से स्तुति करनेवालों से कहा जाता है ॥६॥
भावार्थ - परमात्मा प्रत्येक ज्योतिष्मान् सूर्य आदि के अन्दर ज्योति प्रदान करता है तथा प्रत्येक मधुरतायुक्त वस्तु में मधुरता को भरता है, ऐसे ही प्रशस्त वाणी से युक्त वेद को परमात्मा रचता है। उस वेद से लेकर स्तुति करनेवाले परमात्मा की स्तुतियाँ करते हैं ॥६॥
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