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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दू॒रे तन्नाम॒ गुह्यं॑ परा॒चैर्यत्त्वा॑ भी॒ते अह्व॑येतां वयो॒धै । उद॑स्तभ्नाः पृथि॒वीं द्याम॒भीके॒ भ्रातु॑: पु॒त्रान्म॑घवन्तित्विषा॒णः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रे । तत् । नाम॑ । गुह्य॑म् । प॒रा॒चैः । यत् । त्वा॒ । भी॒ते इति॑ । अह्व॑येताम् । व॒यः॒ऽधै । उत् । अ॒स्त॒भ्नाः॒ । पृ॒थि॒वीम् । द्याम् । अ॒भीके॑ । भ्रातुः॑ । पु॒त्रान् । म॒घ॒ऽव॒न् । ति॒त्वि॒षा॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूरे तन्नाम गुह्यं पराचैर्यत्त्वा भीते अह्वयेतां वयोधै । उदस्तभ्नाः पृथिवीं द्यामभीके भ्रातु: पुत्रान्मघवन्तित्विषाणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरे । तत् । नाम । गुह्यम् । पराचैः । यत् । त्वा । भीते इति । अह्वयेताम् । वयःऽधै । उत् । अस्तभ्नाः । पृथिवीम् । द्याम् । अभीके । भ्रातुः । पुत्रान् । मघऽवन् । तित्विषाणः ॥ १०.५५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (मघवन्) हे धनैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (पराचैः-तत्-नाम गुह्यं दूरे) पराङ्मुख हुए नास्तिक-उपासनारहित जनों द्वारा कहा हुआ गुप्त नाम उसके द्वारा प्राप्त करने में दूर है (यत्-त्वा भीते-अह्वयेताम्) कि डरे हुए पूर्वोक्त द्यावापृथ्वी ज्ञानप्रकाशवाले और अज्ञान अन्धकारवाले राजा प्रजाजन भय करते हुए तेरा आह्वान करते हैं या तुझे बुलाते हैं (वयोधै) जीवन धारण करने के लिये (पृथिवीं द्याम्-अभीके) दोनों द्यावापृथिवी लोक परस्पर आमने-सामने अथवा ज्ञानप्रकाशवाले और अज्ञानान्धकारवाले राजा प्रजा जन एक दूसरे की अपेक्षा आमने रखते हुए रहते हैं (उत् अस्तभ्नाः) तथा रक्षा करते हैं (भ्रातुः पुत्रान्) भ्राताओं और पुत्रों को या भरणीय पुत्रों को, पवित्र गुण-कर्म-स्वभाववाले ज्ञानप्रकाशवान् जनों को (तित्विषाणः) गुणों से प्रकाश करता हुआ पालन करता है ॥१॥

    भावार्थ - जो लोग नास्तिक हैं, ईश्वर की उपासना नहीं करते हैं, वे परमात्मा के रहस्यपूर्ण नामों को नहीं समझ सकते हैं। उन्हें ईश्वर का भय करना चाहिए। जड़जगत् में प्रमुख द्युलोक और पृथ्वीलोक प्रकाशक और प्रकाश्य लोक उससे भय करते हुए जैसे संसार में अपना काम करते हैं और चेतन जगत् में राज्य तथा प्रजा जन भी उससे भय करते हुए अपना-अपना कर्त्तव्यपालन करते हैं। परमात्मा पितृवत् सब प्राणियों का रक्षक है ॥१॥

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