ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 27
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिगार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त ऊ॒ षु णो॑ म॒हो य॑जत्रा भू॒त दे॑वास ऊ॒तये॑ स॒जोषा॑: । ये वाजाँ॒ अन॑यता वि॒यन्तो॒ ये स्था नि॑चे॒तारो॒ अमू॑राः ॥
स्वर सहित पद पाठते । ऊँ॒ इति॑ । सु । नः॒ । म॒हः । य॒ज॒त्राः॒ । भू॒त । दे॒वा॒सः॒ । ऊ॒तये॑ । स॒ऽजोषाः॑ । ये । वाजा॑न् । अन॑यत । वि॒ऽयन्तः॑ । ये । स्थ । नि॒ऽचे॒तारः॑ । अमू॑राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त ऊ षु णो महो यजत्रा भूत देवास ऊतये सजोषा: । ये वाजाँ अनयता वियन्तो ये स्था निचेतारो अमूराः ॥
स्वर रहित पद पाठते । ऊँ इति । सु । नः । महः । यजत्राः । भूत । देवासः । ऊतये । सऽजोषाः । ये । वाजान् । अनयत । विऽयन्तः । ये । स्थ । निऽचेतारः । अमूराः ॥ १०.६१.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 27
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 7
पदार्थ -
(यजत्राः सजोषाः-देवासः) हे अध्यात्मयाजी समान प्रीतिवाले मुमुक्षुजनों ! (ते) वे तुम लोग (नः) हमारे लिए (उ-सु-उतये महः-भूत) अवश्य अच्छे रक्षण के लिए महत्त्ववाले होओ (ये वाजान् वियन्तः-अनयत) जो तुम विशिष्ट गति करते हुए अमृतान्न भोगों को प्राप्त कराते हो (ये निचेतारः-अमूराः स्थ) जो तुम निरन्तर ज्ञान का चयन करानेवाले सावधान हो ॥२७॥
भावार्थ - मानव को अध्यात्मयाजी मुमुक्षुजनों का सङ्ग करके अपने रक्षण के लिए ज्ञान का ग्रहण करना चाहिए और मोक्ष के अमृतभोगों की प्राप्ति के लिए भी उनसे अध्यात्ममार्ग को जानना चाहिए ॥२७॥
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