ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
स्व॒स्ति नो॑ दि॒वो अ॑ग्ने पृथि॒व्या वि॒श्वायु॑र्धेहि य॒जथा॑य देव । सचे॑महि॒ तव॑ दस्म प्रके॒तैरु॑रु॒ष्या ण॑ उ॒रुभि॑र्देव॒ शंसै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति । नः॒ । दि॒वः । अ॒ग्ने॒ । पृ॒थि॒व्याः । वि॒श्वऽआ॑युः । धे॒हि॒ । य॒जथा॑य । दे॒व॒ । सचे॑महि । तव॑ । द॒स्म॒ । प्र॒ऽके॒तैः । उ॒रु॒ष्य । नः॒ । उ॒रुऽभिः॑ । दे॒व॒ । शंसैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्ति नो दिवो अग्ने पृथिव्या विश्वायुर्धेहि यजथाय देव । सचेमहि तव दस्म प्रकेतैरुरुष्या ण उरुभिर्देव शंसै: ॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्ति । नः । दिवः । अग्ने । पृथिव्याः । विश्वऽआयुः । धेहि । यजथाय । देव । सचेमहि । तव । दस्म । प्रऽकेतैः । उरुष्य । नः । उरुऽभिः । देव । शंसैः ॥ १०.७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में अग्नि शब्द से अग्रणायक परमात्मा कहा जाता है।
पदार्थ -
(अग्ने देव) हे अग्रणायक परमात्मदेव ! (यजथाय) जीवनसम्पादन, श्रेष्ठ कर्म करने तथा दान करने के लिये (नः) हमारे लिए (दिवः स्वस्ति) द्युलोक-आकाश से कल्याणकर वृष्टिजल को (पृथिव्याः) पृथिवी से (विश्वायुः) सब प्रकार के अन्न को (धेहि) धारण करा-प्राप्त करा (दस्म देव) हे दर्शनीय देव ! (सचेमहि) हम तेरे अन्दर समवेत हों-तेरी सङ्गति करें (तव शंसैः-उरुभिः-प्रकेतैः-नः-उरुष्य) तेरे अपने प्रशंसनीय बहुत ज्ञानप्रकाशों से हमारी रक्षा कर ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा आकाश से वृष्टिजल और पृथिवी से विविध अन्नों को हमें शुभ जीवनयात्रा के लिए देता है, साथ ही वह अपने प्रशंसनीय ज्ञानप्रकाशों द्वारा हमारी रक्षा करता है, अतः उसकी सङ्गति और उपासना करनी चाहिये ॥१॥
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