ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 20
ऋषिः - भिषगाथर्वणः
देवता - औषधीस्तुतिः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मा वो॑ रिषत्खनि॒ता यस्मै॑ चा॒हं खना॑मि वः । द्वि॒पच्चतु॑ष्पद॒स्माकं॒ सर्व॑मस्त्वनातु॒रम् ॥
स्वर सहित पद पाठमा । वः॒ । रि॒ष॒त् । ख॒नि॒ता । यस्मै॑ । च॒ । अ॒हम् । खना॑मि । वः॒ । द्वि॒ऽपत् । चतुः॑ऽपत् । अ॒स्माक॑म् । सर्व॑म् । अ॒स्तु॒ । अ॒ना॒तु॒रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाहं खनामि वः । द्विपच्चतुष्पदस्माकं सर्वमस्त्वनातुरम् ॥
स्वर रहित पद पाठमा । वः । रिषत् । खनिता । यस्मै । च । अहम् । खनामि । वः । द्विऽपत् । चतुःऽपत् । अस्माकम् । सर्वम् । अस्तु । अनातुरम् ॥ १०.९७.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 20
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(वः) ओषधियों ! तुम्हारा (खनिता) उखाड़नेवाला-उखाड़ता हुआ (मा रिषत्) रोग से पीड़ित नहीं होता, अपितु उखाड़ते-उखाड़ते स्वस्थ हो जाता है (च) और (यस्मै) जिसके लिए (अहं खनामि) मैं खोदता हूँ-उखाड़ता हूँ, वह भी अपने रोग से पीड़ित नहीं होता, किन्तु स्वस्थ हो जाता है, तुम्हारे गुणप्रभाव से (अस्माकम्) हमारा (द्विपत्) दो पैरवाला मनुष्य (चतुष्पत्) चार पैरवाला पशु (सर्वम्) सब प्राणिमात्र (अनातुरम्) रोगरहित-स्वस्थ (अस्तु) होवे-या हो जाता है ॥२०॥
भावार्थ - ओषधियों के अन्दर परमात्मा ने ऐसा रोगनाशक गुण दिया है, उन्हें उखाड़ते-उखाड़ते ही रोग दूर हो जाता है-अथवा रोग नहीं होता और रोगों का रोग भी उनके सेवन से दूर हो जाता है, न केवल मनुष्य ही, किन्तु पशु पक्षी भी ओषधियों से नीरोग हो जाते हैं ॥२०॥
इस भाष्य को एडिट करें