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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 21
    ऋषिः - भिषगाथर्वणः देवता - औषधीस्तुतिः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    याश्चे॒दमु॑पशृ॒ण्वन्ति॒ याश्च॑ दू॒रं परा॑गताः । सर्वा॑: सं॒गत्य॑ वीरुधो॒ऽस्यै सं द॑त्त वी॒र्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः । च॒ । इ॒दम् । उ॒प॒ऽशृ॒ण्वन्ति॑ । याः । च॒ । दू॒रम् । परा॑ऽगताः । सर्वाः॑ । स॒म्ऽगत्य॑ । वी॒रु॒धः॒ । अ॒स्यै । सम् । द॒त्त॒ । वी॒र्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याश्चेदमुपशृण्वन्ति याश्च दूरं परागताः । सर्वा: संगत्य वीरुधोऽस्यै सं दत्त वीर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः । च । इदम् । उपऽशृण्वन्ति । याः । च । दूरम् । पराऽगताः । सर्वाः । सम्ऽगत्य । वीरुधः । अस्यै । सम् । दत्त । वीर्यम् ॥ १०.९७.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 21
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (याः च) और जिन ओषधियों को (इदम्-उपशृण्वन्ति) पढ़नेवाले गुरुमुख से इस प्रकार सुनते हैं कि ऐसे गुणवाली ओषधि हैं (च) और (याः) जो ओषधियाँ (दूरं परागताः) दूर देश से प्राप्त होती हैं (सर्वाः-वीरुधः) वे सारी ओषधियाँ (सङ्गत्य) मिलकर (अस्यै) इस रुग्ण देह के लिये (वीर्यम्) अपने बल या सार को (संदत्त) सम्यक् देओ ॥२१॥

    भावार्थ - ओषधियों के गुणधर्म परम्परा से सुने जाते हैं कि इस ओषधि में ये गुण हैं, वह समीप में हो या दूर देश में, उन्हें लाकर सबको यथोचित मिलाकर रोगी को देने से रोगनाशक बल प्राप्त होता है, अतः कई ओषधियों को मिलाकर भी देना चाहिये ॥२१॥

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