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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
    सूक्त - चातनः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा साम्नीबृहती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    पि॑शाच॒क्षय॑णमसि पिशाच॒चात॑नं मे दाः॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒शा॒च॒ऽक्षय॑णम् । अ॒सि॒ । पि॒शा॒च॒ऽचात॑नम् । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिशाचक्षयणमसि पिशाचचातनं मे दाः स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिशाचऽक्षयणम् । असि । पिशाचऽचातनम् । मे । दा: । स्वाहा ॥१८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 18; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर ! आप (पिशाचक्षयणम् असि) दूसरों के मांस के लोभी हिंसक क्रूर पुरुषों के नाशक हो, अतः (मे) मुझे भी (पिशाचचातनं) ऐसे मांसाशी, क्रूर पुरुषों को नाश करने का सामर्थ्य (दाः) प्रदान करो । (स्वाहा) यह मेरी प्रार्थना स्वीकार करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सम्पत्कामश्चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। साम्नी बृहती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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