अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
सूक्त - प्रजापतिः
देवता - अश्विनीकुमारौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कामिनीमनोऽभिमुखीकरण सूक्त
सं चेन्नया॑थो अश्विना का॒मिना॒ सं च॒ वक्ष॑थः। सं वां॒ भगा॑सो अग्मत॒ सं चि॒त्तानि॒ समु॑ व्र॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । च॒ । इत् । नया॑थ: । अ॒श्वि॒ना॒ । का॒मिना॑ । सम् । च॒ । वक्ष॑थ: । सम् । वा॒म् । भगा॑स: । अ॒ग्म॒त॒ । सम् । चि॒त्तानि॑ । सम् । ऊं॒ इति॑ । व्र॒ता ॥३०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना सं च वक्षथः। सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समु व्रता ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । च । इत् । नयाथ: । अश्विना । कामिना । सम् । च । वक्षथ: । सम् । वाम् । भगास: । अग्मत । सम् । चित्तानि । सम् । ऊं इति । व्रता ॥३०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
विषय - प्रेमपूर्वक स्वयंवर-विधान ।
भावार्थ -
हे (अश्विनौ) आत्मवान्, जितेन्द्रिय कुमार और कुमारी ! तुम दोनों (चेत्) यदि गृहस्थ रथ में अश्वी = आत्मवान् होकर, स्वतः कर्त्ता होकर गृहस्थ के कार्य (नयाथः) उठाने में समर्थ होओ, (च) और (कामिना) एक दूसरे के प्रति प्रेम, अभिलाषा वाले होकर एक दूसरे के भार को (सं वक्षथः) मिल कर उठाने में समर्थ होओं, तब (वां) तुम दोनों के (भगासः) समस्त ऐश्वर्य भी (सं अग्मत) समानरूप से तुम्हें प्राप्त हों, (चित्तानि) तुम्हारे हृदय के सब संकल्प (सं) एक होकर रहें। (व्रता उ) और सब शास्त्र प्रतिपादित धर्मकार्य, यम नियम आदि व्रत भी (सम्) समानरूप से रहें और तुम दोनों मिल कर गृहस्थ होकर रहो, अन्यथा नहीं। विवाह होने के लिये युवक युवति के आत्मा एक, मनोरथ एक, चित्त और व्रत भी एक होने उचित हैं।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘सं नौ भगासो’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। (प्र०) ‘ सं चेन्निषितौ’, (तृ० च०) ‘सर्वाङ्गनस्याग्मत सं चक्षूंषि समु व्रता’ इति पेप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्ऋषिः। अश्विनौ देवता। १ पथ्यापंक्तिः। ३ भुरिक् अनुष्टुभः। २, ४, ५ अनुष्टुभः । पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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