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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगु
देवता - यमः, निर्ऋतिः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
यः प्र॑थ॒मः प्र॒वत॑मास॒साद॑ ब॒हुभ्यः॒ पन्था॑मनुपस्पशा॒नः। यो॒स्येशे॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पद॒स्तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । प्र॒थ॒म: । प्र॒ऽवत॑म् । आ॒ऽस॒साद॑ । ब॒हुऽभ्य॑: । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒न: । य: । अ॒स्य । ईशे॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । तस्मै॑ । य॒माय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । मृ॒त्यवे॑ ॥२८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यः प्रथमः प्रवतमाससाद बहुभ्यः पन्थामनुपस्पशानः। योस्येशे द्विपदो यश्चतुष्पदस्तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥
स्वर रहित पद पाठय: । प्रथम: । प्रऽवतम् । आऽससाद । बहुऽभ्य: । पन्थाम् । अनुऽपस्पशान: । य: । अस्य । ईशे । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । तस्मै । यमाय । नम: । अस्तु । मृत्यवे ॥२८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
विषय - राजा और राजदूत के व्यवहार।
भावार्थ -
(यः) जो (प्रथमः) सब से श्रेष्ठ, सब से प्रथम (बहुभ्यः) और बहुत से लोगों के लिये (पन्थाम्) मार्ग को (अनुपस्पशानः) अपने पीछे दिखाता हुआ (प्रवतन्) उच्च पद को प्राप्त किये है और जो (अस्य द्विपदः) इस मानव संसार (चतुष्पदः) और इस पशु संसार का (ईशे) स्वामी है (यमाय) सर्वनियन्ता (मृत्यवे) सब को बन्धनों से मुक्त करनेवाले (तस्मै) उस प्रभु को (नमः अस्तु) नमस्कार है। उक्त दोनों सूक्त अध्यात्मपरक भी हैं। अध्यात्म में (१) निर्ऋति = संसार (दूतः) क्लेश पाकर, कपोत = आत्मा किसी गुरु से प्रेरित होकर या स्वयं अपनी अभिलाषा से (इदम्) प्रत्यक्ष परमात्मा को प्राप्त हो जाय तो उस आत्मा का आदर करो वह सबका कल्याणकरी है। (२) वही आत्मा शिव, निष्पाप, शक्तिमान् है और यह हमारा शरीर उसका गृह है। वही विप्र अग्नि है जो इस हवि स्तुति को स्वीकार करता है। (३) पक्षिणी—हेति = पक्षपातवाली तृष्णा हमें न सतावे। वह सर्व भक्षिणी अग्नि = आत्मा के स्थान पर भी आक्रमण कर देती है। हमारे पशु-इन्द्रियों और पुरुषों, प्राणों का कल्याण हों, वह आत्मा हमें आघात न करे।
(१) स्तुति या वेद-ज्ञान के अनुसार आत्मा को प्रेरित करे, हर्ष से अनुभव करते हुए वाणियों का उच्चारण करे। दुष्ट विषयों का विनाश करते हुए उन का त्याग करे, देवयान मार्ग में गतिशील हमारा आत्मा उस (ऊर्जं) रसरूप ब्रह्म को प्राप्त हो। (२) योगी लोग उस अग्नि देव परमेश्वर को प्राप्त करते, वाणी का उच्चारण करते या अपनी स्तुतियां उस तक पहुंचाते हैं और अपने प्राणों में बल धारण करते हैं अब उनका विजय कौन कर सकता है। (३) वह परमात्मा सबसे पूर्व बहुत से अन्य जीवों को मार्ग दिखाता हुआ सबसे उच्च स्थान मोक्ष में विराजता है वह सब पशु मनुष्यों का स्वामी, सर्वनियन्ता और बन्धनमोचन है, उसको नमस्कार है।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘योऽस्य दूतः प्रहित एष तत्तस्मै’ इति ऋ०। (प्र० द्वि०) ‘परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्याः पन्थामनु पस्पशानम्’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। यमो निर्ऋतिश्च देवते। १ त्रिष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३ जगती। तृचं सूक्तम्॥
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