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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - मन्युशमनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - मन्युशमन सूक्त
अ॒यं यो भूरि॑मूलः समु॒द्रम॑व॒तिष्ठ॑ति। द॒र्भः पृ॑थि॒व्या उत्थि॑तो मन्यु॒शम॑न उच्यते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । य: । भूरि॑ऽमूल: । स॒मु॒द्रम् । अ॒व॒ऽतिष्ठ॑ति । द॒र्भ: । पृ॒थि॒व्या: । उत्थि॑त: । म॒न्यु॒ऽशम॑न: । उ॒च्य॒ते॒ ॥४३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यो भूरिमूलः समुद्रमवतिष्ठति। दर्भः पृथिव्या उत्थितो मन्युशमन उच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । य: । भूरिऽमूल: । समुद्रम् । अवऽतिष्ठति । दर्भ: । पृथिव्या: । उत्थित: । मन्युऽशमन: । उच्यते ॥४३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
विषय - क्रोधशान्ति के उपाय।
भावार्थ -
(दर्भः) दर्भ—दाभ जिस प्रकार (भूरि-मूलः) लम्बी गहरी और अधिक मूल वाला (पृथिव्याः उत्थितः) पृथिवी के ऊपर बठा हुआ होकर भी (समुद्रम् अव-तिष्ठति) समुद्र, आकाश के नीचे धीरता से खड़ा रहता है इसी प्रकार (अयम्) यह पुरुष जो (दर्भः) समाज का संगठन करने में समर्थ है वह भी (पृथिव्याः उत्थितः) अपनी विशाल मातृसमाज से उत्पन्न होकर (भूरि-मूलः) बहुत से मूल रूप आश्रयों पर प्रतिष्ठित होकर (समुद्रम् अव-तिष्ठति) समुद्र = महान् प्रभु की क्षत्रछाया में रहता है। वही लोक में सब के (मन्यु-शमनः) क्रोधों का शान्त करने द्वारा, सब कलहों को मिटाने वाला (उच्यते) कहा जाता है। अथवा दर्भ या दाभ रस्सी का प्रतिनिधि है। यदि क्रोधी क्रोध करे वो उसको प्रबल पुरुष बंधन में डालें कि उसका सब क्रोध उतर जाय।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - परस्परैकचित्तकरणे भृग्वङ्गिरा ऋधिः। मन्युशमनं देवता। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
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