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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - सामंनस्यम्, वरुणः, सोमः, अग्निः, बृहस्पतिः, वसुगणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    यो वः॒ शुष्मो॒ हृद॑येष्व॒न्तराकू॑ति॒र्या वो॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टा। तान्त्सी॑वयामि ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ मयि॑ सजाता र॒मति॑र्वो अस्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । व॒: । शुष्म॑: । हृद॑येषु । अ॒न्त: । आऽकू॑ति: । या । व॒: । मन॑सि । प्रऽवि॑ष्टा । तान् । सी॒व॒या॒मि॒ । ह॒विषा॑ । घृ॒तेन॑ । मयि॑ । स॒ऽजा॒ता॒: । र॒मति॑: । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥७३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वः शुष्मो हृदयेष्वन्तराकूतिर्या वो मनसि प्रविष्टा। तान्त्सीवयामि हविषा घृतेन मयि सजाता रमतिर्वो अस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । व: । शुष्म: । हृदयेषु । अन्त: । आऽकूति: । या । व: । मनसि । प्रऽविष्टा । तान् । सीवयामि । हविषा । घृतेन । मयि । सऽजाता: । रमति: । व: । अस्तु ॥७३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    राजा अपने सचिवों और अधीन शासकों के प्रति कहे, हे सचिवो और मेरे अधीन शासको ! (यः) जो (वः) तुम्हारा (शुष्मः) बल है और (या) जो (वः मनसि) तुम्हारे मन में और (हृदयेषु) हृदयों में (आकूतिः) प्रबल इच्छा या कामना (अन्तः प्रविष्टा) भीतर घर किये बैठी है (तान्) उन सब बलों को और आप लोगों की उन उन इच्छाओं को (घृतेन) अपने स्नेह और तेज और (हविषा) अन्न और आजीविका प्रदान द्वारा (सीवयामि) अपने साथ बांधता हूँ। हे (स-जाता) बन्धुओ ! (वः) तुम लोगों की (रमतिः) आनन्द विनोद और अनुकूल प्रवृत्ति या अनुग्रह (मयि अस्तु) मेरे ऊपर रहे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यमुत मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-२ अनुष्टुप् ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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