ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
ऋषिः - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेवभयमानसुराधसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यस्याना॑प्त॒: सूर्य॑स्येव॒ यामो॒ भरे॑भरे वृत्र॒हा शुष्मो॒ अस्ति॑। वृष॑न्तम॒: सखि॑भि॒: स्वेभि॒रेवै॑र्म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । अना॑प्तः । सूर्य॑स्यऽइव । यामः॑ । भरे॑ऽभरे । वृ॒त्र॒ऽहा । शुष्मः॑ । अस्ति॑ । वृष॑न्ऽतमः । सखि॑ऽभिः । स्वेभिः॑ । एवैः॑ । म॒रुत्वा॑न् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । इन्द्रः॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यानाप्त: सूर्यस्येव यामो भरेभरे वृत्रहा शुष्मो अस्ति। वृषन्तम: सखिभि: स्वेभिरेवैर्मरुत्वान्नो भवत्विन्द्र ऊती ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। अनाप्तः। सूर्यस्यऽइव। यामः। भरेऽभरे। वृत्रऽहा। शुष्मः। अस्ति। वृषन्ऽतमः। सखिऽभिः। स्वेभिः। एवैः। मरुत्वान्। नः। भवतु। इन्द्रः। ऊती ॥ १.१००.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - पक्षान्तर में परमेश्वर की स्तुति ।
भावार्थ -
( सूर्यस्य इव ) जिस प्रकार सूर्य का ( यामः ) जाने का मार्ग तथा ( यामः ) अधीन ग्रहों को नियन्त्रण करने का महान् सामर्थ्य ( अनाप्तः ) अन्य ग्रहों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता और जिस प्रकार ( वृत्रहा ) सूर्य का मेघों को नाश करने वाला और ( शुष्मः ) शोषण कारी ताप ( भरेभरे ) प्रत्येक पोषणकारी अन्नादि पदार्थों में व्यापक होता है वह (एभिः एवैः वृषन्तमः) अपने प्रकाशों से ही सब से अधिक जल वर्षण करने वाला होता है। (मरुत्वान् इन्द्रः) वह वायुगण से युक्त सूर्य हमारे जीवनों की रक्षा करने के लिये समर्थ होता है। उसी प्रकार (यस्य सूर्यस्य इव) जिस सूर्य समान तेजस्वी पुरुष का (यामः) याम अर्थात् यम का नियन्ता होने का महान् पद, अधिकार, सामर्थ्य और ( यामः ) प्रयाण करने का मार्ग ( अनाप्तः ) शत्रुओं और अधीनस्थों द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सके और ( यस्य शुष्मः ) जिस का शत्रुओं को संतापजनक पराक्रम ( भरेभरे ) प्रत्येक संग्राम में ( वृत्रहा ) विघ्नकारी और बढ़ते हुए शत्रुओं का नाश करने हारा हो वह ( सखिभिः स्वेभिः ) अपने मित्रों सहित ( एवैः ) अपने प्रयत्नों द्वारा ( वृषन्तमः ) अति बलवान् होकर ( मरुत्वान् इन्द्रः ) वायु के समान तीव्र वेग से जाने वाले वीर नरों तथा विद्वानों का स्वामी, ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता पृथ्वीपति ही ( नः ऊती भवतु ) हमारी रक्षा के लिये हो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वृषागिरो महाराजस्य पुत्रभूता वार्षागिरा ऋज्राश्वाम्बरीषसहदेव भयमानसुराघस ऋषयः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५ पङ्क्तिः ॥ २, १३, १७ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १८ विराट् त्रिष्टुप् । ६, १०, १६ भुरिक पङ्क्तिः । ७,८,९,१२,१४, १५, १९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकोन विंशत्यृचसूक्तम् ॥
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