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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 112 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 112/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ, द्वितीयस्य अग्निः, शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ईळे॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वचि॑त्तये॒ऽग्निं घ॒र्मं सु॒रुचं॒ याम॑न्नि॒ष्टये॑। याभि॒र्भरे॑ का॒रमंशा॑य॒ जिन्व॑थ॒स्ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईळे॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । पू॒र्वऽचि॑त्तये । अ॒ग्निम् । घ॒र्मम् । सु॒ऽरुच॑म् । याम॑न् । इ॒ष्टये॑ । याभिः॑ । भरे॑ । का॒रम् । अंशा॑य । जिन्व॑थः । ताभिः॑ । ऊँ॒ इति॑ । सु । ऊ॒तिऽभिः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । ग॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळे द्यावापृथिवी पूर्वचित्तयेऽग्निं घर्मं सुरुचं यामन्निष्टये। याभिर्भरे कारमंशाय जिन्वथस्ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईळे। द्यावापृथिवी इति। पूर्वऽचित्तये। अग्निम्। घर्मम्। सुऽरुचम्। यामन्। इष्टये। याभिः। भरे। कारम्। अंशाय। जिन्वथः। ताभिः। ऊँ इति। सु। ऊतिऽभिः। अश्विना। आ। गतम् ॥ १.११२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 112; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे ( द्यावापृथिवी ) भूमि और सूर्य के समान राजा और प्रजावर्ग दोनों का ( ईळे ) वर्णन करता हूं । ( पूर्वचित्तये इष्टये धर्मं सुरुचं अग्निम् ) प्रथम चयन की हुई इष्टि अर्थात् याग साधन के लिये जिस प्रकार प्रदीप्त कान्तिमान अग्नि को यजमान और उस की पत्नी दोनों प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और पृथिवी के समान प्रजावर्ग दोनों ( पूर्वचित्तये ) पूर्व के विद्वानों और विजयशील राजाओं द्वारा सञ्चित ज्ञान और ऐश्वर्य के ( इष्टये ) प्राप्त करने के लिये ( यामन् ) राज्य तन्त्र के व्यवस्थापन के कार्य और शत्रु पर प्रयाण करने के कार्य में ( यामन् अग्निम् ) अन्धकार मय मार्ग में दीपक के समान ( पूर्वचित्तये ) पहले ही से समस्त बातों के जान लेने के लिये ( घर्मम् ) अति तेजस्वी ( सुरुचं ) उत्तम, प्रजा के अच्छा लगने वाले कान्तिमान्, मनोहर ( अग्निम् ) अग्रणी नायक पुरुष को प्राप्त करते हैं । हे ( अश्विना ) हे राज प्रजावर्गो ! हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( याभिः ऊतिभिः ) जिन रक्षाओं के निमित्त या जिन-रक्षा साधनों से युक्त होकर ( भरे ) संग्राम में ( अंशाय ) अपने भाग को प्राप्त करने के लिये ( कारम् ) कार्यकुशल पुरुष को ( जिन्वथः ) सुप्रसन्न करते और उसकी शरण जाते हो ( ताभिः ऊतिभिः ) उन रक्षा आदि साधनों से ही आप दोनों ( सु आगतम् ) अच्छी प्रकार आओ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ आदिमे मन्त्रे प्रथमपादस्य द्यावापृथिव्यौ द्वितीयस्य अग्निः शिष्टस्य सूक्तस्याश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, २, ६, ७, १३, १५, १७, १८, २०, २१, २२ निचृज्जगती । ४, ८, ९, ११, १२, १४, १६, २३ जगती । १९ विराड् जगती । ३, ५, २४ विराट् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् त्रिष्टुप् । २५ त्रिष्टुप् च ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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