ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 5
स ईं॑ मृ॒गो अप्यो॑ वन॒र्गुरुप॑ त्व॒च्यु॑प॒मस्यां॒ नि धा॑यि। व्य॑ब्रवीद्व॒युना॒ मर्त्ये॑भ्यो॒ऽग्निर्वि॒द्वाँ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः ॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई॒म् । मृ॒गः । अप्यः॑ । व॒न॒र्गुः । उप॑ । त्व॒चि । उ॒प॒ऽमस्या॒म् । नि । धा॒यि॒ । वि । अ॒ब्र॒वी॒त् । व॒युना॑ । मर्त्ये॑भ्यः । अ॒ग्निः । वि॒द्वान् । ऋ॒त॒ऽचित् । हि । स॒त्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं मृगो अप्यो वनर्गुरुप त्वच्युपमस्यां नि धायि। व्यब्रवीद्वयुना मर्त्येभ्योऽग्निर्विद्वाँ ऋतचिद्धि सत्यः ॥
स्वर रहित पद पाठसः। ईम्। मृगः। अप्यः। वनर्गुः। उप। त्वचि। उपऽमस्याम्। नि। धायि। वि। अब्रवीत्। वयुना। मर्त्येभ्यः। अग्निः। विद्वान्। ऋतऽचित्। हि। सत्यः ॥ १.१४५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
विषय - विद्यार्थी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
विद्यार्थी के कर्त्तव्य ! ( अप्यः ) जलाभिलाषी, ( मृगः ) हरिण जिस प्रकार ( वनर्गुः ) जंगल में भटकता और जल खोजता है उसी प्रकार ( सः ) वह विद्यार्थी भी ( मृगः ) विद्या तत्वों के खोजने हारा, ( अप्यः ) ज्ञान और कर्मों के उपदेश का अभिलाषी, ( वनर्गुः ) वन में आचार्यों और वनस्थ तपस्त्रियों के आश्रमों में जाता हुआ ( उपमस्यां ) गुरु के समीप प्राप्त होने वाली ( त्वचि ) मृगछाला या वृक्षत्वक् या ब्रह्मचारी के योग्य वल्कल पहना कर ( निधायि ) रखा जाता है, वह ही ( ऋत चित् ) सत्य ज्ञान को निरन्तर संग्रह करता हुआ ( विद्वान् अग्निः ) विद्वान् अग्नि के समान तेजस्वी और ज्ञानवान् (सत्यः) सत्य आचरणशील, सत्यवक्ता, सज्जनों का हितैषी और उनमें श्रेष्ठ होकर, ( मर्त्येभ्यः ) मरण धर्मा अन्य मनुष्यों को ( वयुना ) नाना प्रकार के ज्ञानोपदेश करे । (२) नायक राजा, ( मृगः ) सिंह के समान वीर ( अप्यः ) कर्मकुशल, ( वनर्गुः ) सेना-वन में विचरण शील होकर प्राप्त पृथ्वी पर राजा रूप में वह अनि रूप से स्थापित किया जाता है वह मनुष्यों को नानाकर्मों का कानून के रूप में उपदेश करता है । वह अग्नि के समान तेजस्वी ऐश्वर्य संचय करने से ‘ऋतचित्’ है । बलवान् पुरुषों में श्रेष्ठ और सत्य न्यायवान् होने से सत्य है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, विराड्जगती । २, निचृज्जगती च । ३,४ भुरिक त्रिष्टुप । पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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