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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स ईं॑ मृ॒गो अप्यो॑ वन॒र्गुरुप॑ त्व॒च्यु॑प॒मस्यां॒ नि धा॑यि। व्य॑ब्रवीद्व॒युना॒ मर्त्ये॑भ्यो॒ऽग्निर्वि॒द्वाँ ऋ॑त॒चिद्धि स॒त्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । ई॒म् । मृ॒गः । अप्यः॑ । व॒न॒र्गुः । उप॑ । त्व॒चि । उ॒प॒ऽमस्या॒म् । नि । धा॒यि॒ । वि । अ॒ब्र॒वी॒त् । व॒युना॑ । मर्त्ये॑भ्यः । अ॒ग्निः । वि॒द्वान् । ऋ॒त॒ऽचित् । हि । स॒त्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स ईं मृगो अप्यो वनर्गुरुप त्वच्युपमस्यां नि धायि। व्यब्रवीद्वयुना मर्त्येभ्योऽग्निर्विद्वाँ ऋतचिद्धि सत्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। ईम्। मृगः। अप्यः। वनर्गुः। उप। त्वचि। उपऽमस्याम्। नि। धायि। वि। अब्रवीत्। वयुना। मर्त्येभ्यः। अग्निः। विद्वान्। ऋतऽचित्। हि। सत्यः ॥ १.१४५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    विद्वद्भिर्योऽप्यो वनर्गुर्मृगइव उपमस्यां त्वच्युपनिधायि च ऋतचिदग्निर्विद्वान् मर्त्येभ्यो वयुने व्यब्रवीत् स हि सत्योऽस्ति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (सः) (ईम्) (मृगः) (अप्यः) योऽपोर्हति (वनर्गुः) वनगामी। अत्र वनोपपदादृजु धातोरौणादिक उप्रत्ययो बाहुलकात्कुत्वं च। (उप) (त्वचि) त्वगिन्द्रिये (उपमस्याम्) उपमायाम्। अत्र वाच्छन्दसीति स्याडागमः। (नि) (धायि) धीयते (वि) (अब्रवीत्) उपदिशति (वयुना) प्रज्ञानानि (मर्त्येभ्यः) मनुष्येभ्यः (अग्निः) अग्निरिव विद्यादिसद्गुणैः प्रकाशमानाः (विद्वान्) वेत्ति सर्वा विद्याः सः (ऋतचित्) य ऋतं सत्यं चिनोति (हि) किल (सत्यः) सत्सु पुरुषेषु साधुः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा तृषातुरो मृगो जलपानाय वने भ्रमित्वा जलं प्राप्य नन्दति तथा विद्वांसो शुभाचरितान् विद्यार्थिनः प्राप्यानन्दन्ति, ये विद्याः प्राप्याऽन्येभ्यो न प्रयच्छन्ति ते क्षुद्राशयाः पापिष्ठाः सन्तीति ॥ ५ ॥अत्रोपदेशकोपदेश्यकर्त्तव्यकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥इति पञ्चत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    विद्वानों से जो (अप्यः) जलों के योग्य (वनर्गुः) वनगामी (मृगः) हरिण के समान (उपमस्याम्) उपमा रूप (त्वचि) त्वगिन्द्रिय में (उप, नि, धायि) समीप निरन्तर धरा जाता है वा जो (ऋतचित्) सत्य व्यवहार को इकट्ठा करनेवाला (अग्निः) अग्नि के समान विद्या आदि गुणों से प्रकाशमान (विद्वान्) सब विद्याओं को जाननेवाला पण्डित (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों के लिये (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों का (ईम्) ही (वि, अब्रवीत्) विशेष करके उपदेश देता है (सः, हि) वही (सत्यः) सज्जनों में साधु है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे तृषातुर मृग जल पीने के लिये वन में डोलता-डोलता जल को पाकर आनन्दित होता है वैसे विद्वान् जन शुभ आचरण करनेवाले विद्यार्थियों को पाकर आनन्दित होते हैं और जो शिक्षा पाकर औरों को नहीं देते वे क्षुद्राशय और अत्यन्त पापी होते हैं ॥ ५ ॥इस सूक्त में उपदेश करने और उपदेश सुननेवालों के कर्त्तव्य कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पैंतालीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सत्यलोक की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु (ईम्) = निश्चय से (मृग:) = [मर्जयिता - सा०] भक्त के जीवन को शुद्ध बनानेवाले हैं, (अप्यः) = [आप्यः] प्राप्त करने योग्य हैं। प्रभु को प्राप्त करनेवाला ही तो शुद्ध जीवनवाला बनता है। वे प्रभु (वनर्गुः) = उपासकों को प्राप्त होते हैं [वन सम्भजने], (उप त्वचि) = वे प्रभु भक्तों के सम्पर्क में निधायि स्थापित होते हैं, अर्थात् भक्तों को प्रभु की प्राप्ति होती है। (उपमस्याम्) = वे प्रभु तो समीप हृदय में स्थित हैं। २. वे विद्वान् (अग्निः) = ज्ञानी प्रभु (मर्तेभ्यः) = मनुष्यों के लिए (वयुना) = प्रज्ञानों को (वि अब्रवीत्) = विशेषरूप से उपदिष्ट करते हैं, उनके हृदयों में स्थित हुए हुए उन्हें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराते हैं। वे प्रभु हि निश्चय से भक्तों के हृदय में (ऋतचित्) = सत्य व यज्ञ का चयन करनेवाले हैं। प्रभु के ध्यान से सत्य व यज्ञ की भावना का वर्धन होता है। वे प्रभु (सत्यः) = सत्यस्वरूप हैं। प्रभु भक्त भी अधिकाधिक सत्यवादी होता है। यह सत्य ही सर्वोत्कृष्ट लोक है, जहाँ कि हमें पहुँचना है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु भक्त के जीवन को परिमार्जित कर देते हैं और यह भक्त जीवन में ऋत का वर्धन करता हुआ सत्यस्वरूप प्रभु को प्राप्त करता है।

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    विषय

    विद्यार्थी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    विद्यार्थी के कर्त्तव्य ! ( अप्यः ) जलाभिलाषी, ( मृगः ) हरिण जिस प्रकार ( वनर्गुः ) जंगल में भटकता और जल खोजता है उसी प्रकार ( सः ) वह विद्यार्थी भी ( मृगः ) विद्या तत्वों के खोजने हारा, ( अप्यः ) ज्ञान और कर्मों के उपदेश का अभिलाषी, ( वनर्गुः ) वन में आचार्यों और वनस्थ तपस्त्रियों के आश्रमों में जाता हुआ ( उपमस्यां ) गुरु के समीप प्राप्त होने वाली ( त्वचि ) मृगछाला या वृक्षत्वक् या ब्रह्मचारी के योग्य वल्कल पहना कर ( निधायि ) रखा जाता है, वह ही ( ऋत चित् ) सत्य ज्ञान को निरन्तर संग्रह करता हुआ ( विद्वान् अग्निः ) विद्वान् अग्नि के समान तेजस्वी और ज्ञानवान् (सत्यः) सत्य आचरणशील, सत्यवक्ता, सज्जनों का हितैषी और उनमें श्रेष्ठ होकर, ( मर्त्येभ्यः ) मरण धर्मा अन्य मनुष्यों को ( वयुना ) नाना प्रकार के ज्ञानोपदेश करे । (२) नायक राजा, ( मृगः ) सिंह के समान वीर ( अप्यः ) कर्मकुशल, ( वनर्गुः ) सेना-वन में विचरण शील होकर प्राप्त पृथ्वी पर राजा रूप में वह अनि रूप से स्थापित किया जाता है वह मनुष्यों को नानाकर्मों का कानून के रूप में उपदेश करता है । वह अग्नि के समान तेजस्वी ऐश्वर्य संचय करने से ‘ऋतचित्’ है । बलवान् पुरुषों में श्रेष्ठ और सत्य न्यायवान् होने से सत्य है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, विराड्जगती । २, निचृज्जगती च । ३,४ भुरिक त्रिष्टुप । पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा तुषातुर मृग वनात जल प्राप्त करण्यासाठी फिरतो व जल पाहून आनंदित होतो, तसे विद्वान लोक शुभ आचरण करणाऱ्या विद्यार्थ्यांना पाहून आनंदित होतात. जे विद्या प्राप्त करून इतरांना देत नाहीत ते क्षुद्र व अत्यंत पापी असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That Agni which is ever on the move like a deer, worthy of research and attainment, abiding in the waters, in the forests, in the sunbeams, in the woods, in the skin, and in the dark of the eye, which is a metaphor of omnipresence and universal eloquence of its presence for humanity, and similarly for the brilliant scholar dedicated to Agni, abiding for all everywhere, collecting the dynamic flow of knowledge and speaking of it to humanity — that is true, that is abiding: Agni, knowledge, scholarship, the flow, dynamics of existence, and living.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of enlightened persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A thirsty deer goes to a water-store. Likewise a scholar is placed near the altar of a Yajna. He guides the other performers of the Yajna. He being highly learned and shining like fire, on account of knowledge, wisdom and other good virtues, accepts and knows truth and subsequently preaches the knowledge of their duties.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    thirsty deer wanders in the forest in search of water and on having it drinks and gets delighted. Likewise, highly learned persons feel great satisfaction and joy by getting students of caliber and character.

    Foot Notes

    ( वयुना) प्रज्ञानानि = Wisdom (अग्नि:) अग्नि इव विद्यादि सद्गुणैः प्रकाशमान: = Shining like fire with Vidya and other virtues. (ऋतचित् ) या ऋतं चिनोति — He who gathers truth from all sides. ( बबुना ) प्रज्ञानानि – Teachings.

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