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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒प॒स्थायं॑ चरति॒ यत्स॒मार॑त स॒द्यो जा॒तस्त॑त्सार॒ युज्ये॑भिः। अ॒भि श्वा॒न्तं मृ॑शते ना॒न्द्ये॑ मु॒दे यदीं॒ गच्छ॑न्त्युश॒तीर॑पिष्ठि॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽस्थाय॑म् । च॒र॒ति॒ । यत् । स॒म्ऽआर॑त । स॒द्यः । जा॒तः । त॒त्सा॒र॒ । युज्ये॑भिः । अ॒भि । श्वा॒न्तम् । मृ॒श॒ते॒ । ना॒न्द्ये॑ । मु॒दे । यत् । ई॒म् । गच्छ॑न्ति । उ॒श॒तीः । अ॒पि॒ऽस्थि॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपस्थायं चरति यत्समारत सद्यो जातस्तत्सार युज्येभिः। अभि श्वान्तं मृशते नान्द्ये मुदे यदीं गच्छन्त्युशतीरपिष्ठितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽस्थायम्। चरति। यत्। सम्ऽआरत। सद्यः। जातः। तत्सार। युज्येभिः। अभि। श्वान्तम्। मृशते। नान्द्ये। मुदे। यत्। ईम्। गच्छन्ति। उशतीः। अपिऽस्थितम् ॥ १.१४५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे जिज्ञासवो जना यद्यो युज्येभिस्सह सद्यो जात उपस्थायं चरति तत्सार श्वान्तमभिमृशते बुद्धिमन्तो यद्यं नान्द्ये मुदेऽपिस्थितमुशतीरीं गच्छन्तिं तं यूयं समारत ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (उपस्थायम्) अभिक्षणमुपस्थातुम् (चरति) गच्छति (यत्) यः (समारत) सम्यक् प्राप्नुत (सद्यः) शीघ्रम् (जातः) प्रसिद्धः (तत्सार) तत्सरेत् (युज्येभिः) योजितुं योग्यैः सह (अभि) (श्वान्तम्) श्रान्तं परिपक्वज्ञानम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन रेफस्य स्थाने वः। (मृशते) (नान्द्ये) आनन्दाय (मुदे) मोदनाय (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (गच्छन्ति) (उशतीः) कामयमाना विदुषीः (अपिस्थितम्) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ये याश्च सद्यः पूर्णविद्या जायन्ते कुटिलतादिदोषान् विहाय शान्त्यादिगुणान् प्राप्य सर्वेषां विद्यासुखाय अभीक्ष्णं प्रयतन्ते ते जगदानन्ददायकाः सन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे जिज्ञासु जनो ! (यत्) जो (युज्येभिः) युक्त करने योग्य पदार्थों के साथ (सद्यः) शीघ्र (जातः) प्रसिद्ध हुआ (उपस्थायम्) क्षण क्षण उपस्थान करने को (चरित) जाता है वा (तत्सार) कुटिलपन से जावे वा (श्वान्तम्) परिपक्व पूरे ज्ञान को (अभिमृशते) सब ओर से विचारता है वा बुद्धिमान् जन (यम्) जिस (नान्द्ये) अति आनन्द और (मुदे) सामान्य हर्ष होने के लिये (अपिस्थितम्) स्थिर हुए को और (उशतीः) कामना करती हुई पण्डिताओं को (ईम्) सब ओर से (गच्छन्ति) प्राप्त होते उसको तुम (समारत) अच्छे प्रकार प्राप्त होओ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो बालक और जो कन्या शीघ्र पूर्ण विद्यायुक्त होते हैं और कुटिलतादि दोषों को छोड़ शान्ति आदि गुणों को प्राप्त होकर सबको विद्या तथा सुख होने के लिये बार-बार प्रयत्न करते हैं, वे जगत् को आनन्द देनेवाले होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    भक्त प्रभु की और प्रभु भक्त की ओर

    पदार्थ

    १. जब एक भक्त प्रत्येक कार्य को (उपस्थायं चरति) = [उपस्थाय उपस्थाय चरति - सा०] प्रभु की उपासना के साथ करता है, (यत्) = और जब (समारत) = उस प्रभु के साथ सङ्गत होता है, अर्थात् प्रातः-सायं प्रभु के ध्यान में बैठता है तब वे प्रभु (सद्यः जातः) = शीघ्र प्रकट हुए हुए (युज्येभिः) = इन योगयुक्त पुरुषों को (तत्सार) = [त्सर - to go or approach gently] शान्ति से प्राप्त होते हैं। (श्वान्तम्) = [श्वि गतिवृद्धयोः] गतिशील व वर्धमान [शक्तियों का वर्धन करते हुए] पुरुष को (अभिमृशते) = प्रभु स्पर्श करते हैं। गतिशील, वर्धमान पुरुष का प्रभु से मेल होता है। यह मेल (नान्द्ये) = [नन्द्-समृद्धौ] समृद्धि के होने पर (मुदे) = हर्ष के लिए होता है। प्रभु के मेल से अभ्युदय की प्राप्ति होती है और आनन्द की वृद्धि होती है। २. यह सब होता तभी है (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (उशती:) = प्रभु से मेल की कामनावाली ये प्रजाएँ (अपिष्ठितम्) = सर्वत्र व्याप्त होकर वर्तमान उस प्रभु की ओर (गच्छन्ति) = जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - भक्त जब प्रभु के स्मरण के साथ ही प्रत्येक कार्य को करता है तब प्रभु भी उसे प्राप्त होते हैं। यह प्रभु से मेल अभ्युदय व आनन्द का कारण होता है।

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    विषय

    शिष्य आचार्य और नायक के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    शिष्य के कर्त्तव्य । ( यत् ) जो ( सम् आरत ) आचार्य का सत्संग करता है और ( उपस्थायं चरति ) और उसके समीप ही उपस्थित रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का आचरण करता है वह ( सद्यः ) शीघ्र ही ( जातः ) आचार्य रूप माता से उत्पन्न ( सद्यो जातः ) नव उत्पन्न बालक के समान ज्ञान रहित होकर भी (युज्येभिः) योग करने योग्य अन्य सहाध्यायियों सहित या योग करने योग्य उत्तम गुणों से (तत्सार) शनैः शनैः आगे बढ़ता है । ( यद् ) जब कि शिष्यगण (उशतीः) कामना वाली स्त्रियें जिस प्रकार अपने पति के पास जाती हैं उसी प्रकार विद्या की कामना वाले विद्यार्थिजन ( यत् ) जब ( इम् ) उस पूज्य ( श्वान्तं ) शान्त परिपक्व ज्ञान वाले ( अपिस्थितम् ) पूज्य स्थान परस्थित आचार्य को ( गच्छन्ति ) प्राप्त हों तब वे ( नान्द्ये ) हृदय का आनन्द प्राप्त करने और ( मुदे ) हर्ष या सन्तोष प्राप्त करने के लिये (अभि मृशते) नाना प्रकार के प्रश्न करें और तत्व पर विचार करें। आचार्य का कर्त्तव्य, ( यदीं अपिस्थितं ) जब उस उच्च पद पर स्थित आचार्य के पास ( उशतीः ) विद्या के अभिलाषी ब्रह्मचारियों की श्रेणियें जावें तब वह (नान्द्ये मुदे) अभिनन्दन करने योग्य हर्ष के लिये ( श्वान्तं = स्वान्तं अभिमृशते ) अपने समीप आये शिष्य जन को प्रेम से स्वीकार करे, उसे स्पर्श कर आलिंगन करे । वह (सद्यः) शीघ्र ही ( जातः ) विद्याओं में प्रसिद्ध होकर ( युज्येभिः ) योग्य गुणों से ( तत्सार ) युक्त हो ( यत् सम् आरत ) जो सत्संग करे वह ( उपस्थायं चरति ) सदा उपस्थित होकर व्रत का आचरण करे । ( ३ ) अग्रणी नायक पक्ष में—( यत् सम् आरत ) जब प्रजाएं और विद्वान् राजा के शरण में आवें वा जब वीरजन रणांगण में जुटें तब नायक उपस्थित होकर धर्माचरण करे या रण में विचरे । ( सद्यः जातः ) यशस्वी होकर ( युज्येभिः ) साथियों सहित (तत्सार) शत्रु से छल गति से चालें चले । ( अपिस्थितम् ) उत्तम पद पर स्थित नायक को जब नाना धनादि कामनाओं से युक्त प्रजाएं या सेनाएं सब प्रकार से ( गच्छन्ति ) प्राप्त हों। ( श्वान्तं = श्रान्तं ) अपनों में से थके हुए सैनिक को ( नान्द्ये मुदे ) हर्षित और प्रफुल्लित करने के लिये ( अभिमृशते ) पीठ पर हाथ फेरे, उसे दिलासा दे, थपके । पति पत्नी के रहस्य धर्मो तथा अध्यात्म का भी इसमें बड़ा वैज्ञानिक उपदेश है जो स्थानाभाव से नहीं लिखते ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, विराड्जगती । २, निचृज्जगती च । ३,४ भुरिक त्रिष्टुप । पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जे बालक व ज्या कन्या लवकर पूर्ण विद्यायुक्त होतात व कुटिलता इत्यादी दोष सोडून शांती इत्यादी गुण प्राप्त करून सर्वांना विद्या आणि सुख मिळावे यासाठी वारंवार प्रयत्न करतात ते जगाला आनंद देणारे असतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When the devotee approaches this brilliant Agni with holy offerings, it instantly responds, rises, grows and expands with its flames. When the maidens with love and faith approach it, it provides soothing touches of caress and reflection for their peace and joy in a state of tranquillity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of the enlightened.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O seekers after truth ! approach that wise leader, whose companions confide in him, and who goes to others to help and stands by them where needed. Such a leader goes everywhere to discharge his duties, thinks over again and again about the mature knowledge. Intelligent persons approach him for getting joy and delight and redressal of their grievances. Women desiring good knowledge and guidance also approach such a person.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! those persons are givers of joy to the world who are endowed with all knowledge and endeavor. They impart delight of knowledge to all having given up crookedness and other evils and have attained peace and other virtues.

    Foot Notes

    ( श्वान्तम् ) श्रान्तं परिपक्वज्ञानम् ( अत्न वर्णव्यत्ययेन रेफस्य स्थाने व ) = Wisdom. ( समारत् ) सम्यक् प्राप्नुत = Approach well.

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