ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 4
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तत्त॒दिद॑स्य॒ पौंस्यं॑ गृणीमसी॒नस्य॑ त्रा॒तुर॑वृ॒कस्य॑ मी॒ळ्हुष॑:। यः पार्थि॑वानि त्रि॒भिरिद्विगा॑मभिरु॒रु क्रमि॑ष्टोरुगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत्ऽत॑त् । इत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । गृ॒णी॒म॒सि॒ । इ॒नस्य॑ । त्रा॒तुः । अ॒वृ॒कस्य॑ । मी॒ळ्हुषः॑ । यः । पार्थि॑वानि । त्रि॒ऽभिः । इत् । विगा॑मऽभिः । उ॒रु । क्रमि॑ष्ट । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ जी॒वसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुष:। यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे ॥
स्वर रहित पद पाठतत्ऽतत्। इत्। अस्य। पौंस्यम्। गृणीमसि। इनस्य। त्रातुः। अवृकस्य। मीळ्हुषः। यः। पार्थिवानि। त्रिऽभिः। इत्। विगामऽभिः। उरु। क्रमिष्ट। उरुऽगायाय जीवसे ॥ १.१५५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
विषय - सूर्यवत् प्रबल पुरुष और ब्रह्मचारी के अपूर्व वीर्य-बल का वर्णन ।
भावार्थ -
जिस प्रकार सूर्य अपने अग्नि, विद्युत् और सूर्य इन तीन विशेष रूपों से समस्त लोकों में व्याप जाता है उसी प्रकार ( यः ) जो पुरुष ( त्रिभिः ) तीन ( विगामभिः ) विशेष गमन या उपायों से ( उरुगायाय ) अति प्रशंसित ( जीवसे ) जीवन की रक्षा और धारण करने के लिये ( पार्थिवानि ) पृथिवी के समस्त पदार्थों और लोकों और प्राणियों को ( उरु ) अति उत्तम रूप से ( क्रमिष्ट ) क्रमण कर जाता है ( तत् तत् ) वह नाना प्रकार का सब ( पौस्यं ) बल पराक्रम, पौरुष हम लोग ( इनस्य ) स्वामी, सूर्य के समान तेजस्वी, ( त्रातुः ) रक्षक, ( अवृकस्य ) भेडिये के समान वञ्चक वा प्रजाभक्षक न रहने वाले ( मीढुषः ) मेघ के समान ऐश्वर्यो के वर्षक प्रजापालक स्वामी का ही ( गृणीमसि ) बतलाते हैं । ( २ ) यह वीर्य सेचन में समर्थ ब्रह्मचारी पुरुष का ही पुरुषत्व है कि वह पृथिवी अर्थात् स्त्री से उत्पन्न सब सन्तानों को उत्तम दीर्घ जीवन धारण कराने के लिये ( त्रिभिः विगामभिः उरु क्रमिष्ट ) पिता पुत्र और पौत्र तीनों रूपों से व्यापता है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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