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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 155 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्वे इद॑स्य॒ क्रम॑णे स्व॒र्दृशो॑ऽभि॒ख्याय॒ मर्त्यो॑ भुरण्यति। तृ॒तीय॑मस्य॒ नकि॒रा द॑धर्षति॒ वय॑श्च॒न प॒तय॑न्तः पत॒त्रिण॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वे इति॑ । इत् । अ॒स्य॒ । क्रम॑णे॒ इति॑ । स्वः॒ऽदृशः॑ । अ॒भि॒ऽख्याय॑ । मर्त्यः॑ । भु॒र॒ण्य॒ति॒ । तृ॒तीय॑म् । अ॒स्य॒ । नकिः॑ । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ । वयः॑ । च॒न । प॒तय॑न्तः । प॒त॒त्रिणः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वे इदस्य क्रमणे स्वर्दृशोऽभिख्याय मर्त्यो भुरण्यति। तृतीयमस्य नकिरा दधर्षति वयश्चन पतयन्तः पतत्रिण: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वे इति। इत्। अस्य। क्रमणे इति। स्वःऽदृशः। अभिऽख्याय। मर्त्यः। भुरण्यति। तृतीयम्। अस्य। नकिः। आ। दधर्षति। वयः। चन। पतयन्तः। पतत्रिणः ॥ १.१५५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( अस्य स्वशः ) इस तेजोमय, प्रकाश और ताप से उज्ज्वल दीखने वाले सूर्य के ( द्वे क्रमणे ) दो क्रमण, दो स्थान पृथिवी और अन्तरिक्ष इन को ( मर्त्यः अभि ख्याय ) मनुष्य प्राणी विद्या के बल से प्राप्त कर लेता है । ( अस्य तृतीयम् नकिः आ दधर्षति ) और इसके तीसरे स्थान आकाश को कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता । ( पतयन्तः ) दूर तक उड़ने वाले ( पतत्रिणः चन ) बड़े बड़े पक्षी भी वहां तक नहीं पहुंच सकते, ठीक इसी प्रकार (स्वर्दृशः) प्रजा सन्तान आदि के सुखमय मार्ग को देखने हारे ( अस्य ) इस वीर्यवान् ब्रह्मचारी पुरुष और राजा के ( द्वे एव क्रमणे ) दो ही ऐसे क्रमण अर्थात् गमन, आश्रम या आचरण हैं जिनको ( अभि ख्याय ) अच्छी प्रकार ज्ञान पूर्वक देख कर ( मर्त्यः भुरण्यति) मनुष्य धारण कर सकता है । ( अस्य तृतीयम् ) इसका तीसरा स्वरूप या विद्या जन्म वह है जिसको (पतयन्तः पतत्रिणः वयः चन) ऊपर नीचे जाने वाले पक्षवान्, पक्षियों के समान ही ( पतयन्तः ) केवल धन ऐश्वर्यों का स्वामी होने वाले ( पतत्रिणः ) मार्ग में जाते हुए गिरने से बचाने वाले सहायकों से युक्त या रथादि के स्वामी और ( वयः चन ) और सामान्य ज्ञानवान् पुरुष भी ( न किः चन आ दधर्षति ) कभी तिरस्कृत नहीं कर सकते । ब्रह्मचारी के विद्या बल के सामने सब झुकते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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