Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 155 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    च॒तुर्भि॑: सा॒कं न॑व॒तिं च॒ नाम॑भिश्च॒क्रं न वृ॒त्तं व्यतीँ॑रवीविपत्। बृ॒हच्छ॑रीरो वि॒मिमा॑न॒ ऋक्व॑भि॒र्युवाकु॑मार॒: प्रत्ये॑त्याह॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒तुःऽभिः॑ । सा॒कम् । न॒व॒तिम् । च॒ । नाम॑ऽभिः । च॒क्रम् । न । वृ॒त्तम् । व्यती॑न् । अ॒वी॒वि॒प॒त् । बृ॒हत्ऽश॑रीरः । वि॒ऽमिमा॑नः । ऋक्व॑ऽभिः । युवा॑ । अकु॑मारः । प्रति॑ । ए॒ति॒ । आ॒ऽह॒वम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुर्भि: साकं नवतिं च नामभिश्चक्रं न वृत्तं व्यतीँरवीविपत्। बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवाकुमार: प्रत्येत्याहवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतुःऽभिः। साकम्। नवतिम्। च। नामऽभिः। चक्रम्। न। वृत्तम्। व्यतीन्। अवीविपत्। बृहत्ऽशरीरः। विऽमिमानः। ऋक्वऽभिः। युवा। अकुमारः। प्रति। एति। आऽहवम् ॥ १.१५५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( अकुमारः ) कुमार दशा अर्थात् बाल्यभाव को त्याग कर ( बृहत् शरीरः ) बड़े लम्बे चौड़े विशाल शरीर वाला ( युवा ) युवा पुरुष (ऋक्वभिः) अपनी वाणी या आज्ञा के अधीन पुरुषों से ( विभिमानः ) विविध दिशाओं के शत्रुओं को गिराता हुआ ( आहवम् प्रति एति ) युद्ध को जाता है और ( चतुर्भिः साकं नवतिं च ) चार के साथ नब्बे अर्थात् ९४ पुरुषों के बने ( व्यतीन् ) विशेष बलशाली पुरुषों और ( चक्र ) चक्रव्यूह को भी ( वृत्तं न ) हाथ में रखे चक्रास्त्र के समान ( नामभिः ) अपने नमाने वाले बलों से ( अवीविपत् ) कंपा देता है उसी प्रकार ब्रह्मचारी भी ( अकुमारः ) कुत्सिक काम क्रोधादि से त्रस्त न होकर ( युवा ) आचार्य के उपदेशों को जीवन में संगति करने वाला, ( बृहत् शरीरः ) नित्य वृद्धिशील, विशालकाय होकर ( ऋक्वभिः ) वेद की ऋचाओं वा ज्ञानवान् विद्वानों से (विमिमानः) विविध ज्ञानों को प्राप्त करता हुआ ( आहवम् ) समस्त ज्ञान को ( प्रति एति ) प्राप्त हो । वह ( चतुर्भिः साकं नवतिं व्यतीन् ) ९४ प्रकार के विरुद्ध बाधक कारणों को ( वृत्तं चक्रम् ) गोल चक्र के समान (नामभिः) अपने चार दशा या आश्रमों या चार प्रकार के ब्रह्मचर्य के बलों से साधक ( अवीविपत् ) कंपा दे, उनको दूर करे । इति पञ्चविंशो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top